"मातृभूमि / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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− | नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है। | + | <poem> |
− | सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥ | + | नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है। |
− | नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं। | + | सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥ |
− | बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥ | + | नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं। |
− | + | बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥ | |
− | करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की। | + | करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की। |
− | हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥ | + | हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥ |
− | + | जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं। | |
− | जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं। | + | घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥ |
− | घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥ | + | परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये। |
− | परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये। | + | जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥ |
− | जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥ | + | हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में। |
− | + | हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में? | |
− | हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में। | + | पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा। |
− | हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में? | + | तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा? |
− | + | तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है। | |
− | पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा। | + | बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥ |
− | तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा? | + | फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी। |
− | तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है। | + | हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥ |
− | बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥ | + | निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है। |
− | + | शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥ | |
− | फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी। | + | षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है। |
− | हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥ | + | हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥ |
− | + | शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है। | |
− | निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है। | + | हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥ |
− | शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥ | + | सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं। |
− | षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है। | + | भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥ |
− | हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥ | + | औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली। |
− | + | खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥ | |
− | शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है। | + | जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं। |
− | हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥ | + | हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥ |
− | + | क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है। | |
− | सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं। | + | सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥ |
− | भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥ | + | विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है। |
− | औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली। | + | भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥ |
− | खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥ | + | हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है। |
− | + | हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥ | |
− | जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं। | + | जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे। |
− | हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥ | + | उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥ |
− | + | लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे। | |
− | क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है। | + | उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥ |
− | सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥ | + | उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे। |
− | विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है। | + | होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥ |
− | भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥ | + | </poem> |
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− | हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है। | + | |
− | हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥ | + | |
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− | जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे। | + | |
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− | उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे। | + | |
− | होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥< | + |
11:31, 27 जनवरी 2015 का अवतरण
नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?
पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥
निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥
सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥