भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"भाषा / महेश सन्तुष्ट" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तुष्ट }} {{KKCatKavita}} <poem> मैंने भोंकने वाले जान…) |
|||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
भाषा को भी | भाषा को भी | ||
निर्वस्त्र होते देखा है! | निर्वस्त्र होते देखा है! | ||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> |
12:15, 2 मई 2010 के समय का अवतरण
मैंने
भोंकने वाले
जानवरों की भाषा में
एक ही लय देखी है।
और देखा है
चिन्तकों को
मूक भाषा में
बातें करते।
मैंने
घरों में
केवल आदमी को ही नहीं
भाषा को भी
निर्वस्त्र होते देखा है!