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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ७" के अवतरणों में अंतर

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है महायात्रा यही, इस हेतु,
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फहरने दो आज सौ सौ केतु!
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घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर,
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सूचना हो जाए चारों ओर--
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सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति,
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और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति!
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अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व,
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आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व!
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सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज;
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बस, यही अन्तिम विदा है आज।
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सूत, मागध, वन्दि आदि अभीत,
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गा उठें जीवन-विजय के गीत--
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तुच्छ कर नृप मृत्यु-पक्ष समक्ष,
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पा गये हैं आज अपना लक्ष।
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राजगृह की वह्नि बाहर जोड़,
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कर उठे द्विज होम--आहुति छोड़।
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कुल-पुरोहित और कुल-आचार्य,
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भरत युत करने लगे सब कार्य।
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शव बना था शिव-समाधि-समान,
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था शिवालय-तुल्य शिविका यान।
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और जिनसे था वहन-सम्बन्ध,
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थे भरत के भव्य-भद्र-स्कन्ध।
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बज रहे थे झाँझ, झालर, शंख,
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पा गया जयघोष अगणित पंख!
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भाव-गद्गद हो रहे थे लोग,
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गा रहे थे, रो रहे थे लोग।
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बरसता था नेत्र-नीर नितान्त,
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मार्ग-रज-कण थे प्रथम ही शान्त।
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पाँवड़ों पर, बीच में शव-यान,
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उभय ओर मनुष्य-पंक्ति महान।
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आज पैदल थे सभी सत्पात्र,
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वाहनों पर नृप-समादर मात्र।
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शेष-दर्शन कर सभक्ति, सयत्न,
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जन लुटाते थे वसन, धन, रत्न।
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आ गया सब संघ सरयू-तीर,
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करुण-गद्गद था सहज ही नीर।
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आप सरिता वीचि-वेणी खोल
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कर रही थी कल-विलाप विलोल!
  
 
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20:40, 26 जनवरी 2010 का अवतरण

है महायात्रा यही, इस हेतु,
फहरने दो आज सौ सौ केतु!
घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर,
सूचना हो जाए चारों ओर--
सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति,
और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति!
अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व,
आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व!
सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज;
बस, यही अन्तिम विदा है आज।
सूत, मागध, वन्दि आदि अभीत,
गा उठें जीवन-विजय के गीत--
तुच्छ कर नृप मृत्यु-पक्ष समक्ष,
पा गये हैं आज अपना लक्ष।

राजगृह की वह्नि बाहर जोड़,
कर उठे द्विज होम--आहुति छोड़।
कुल-पुरोहित और कुल-आचार्य,
भरत युत करने लगे सब कार्य।
शव बना था शिव-समाधि-समान,
था शिवालय-तुल्य शिविका यान।
और जिनसे था वहन-सम्बन्ध,
थे भरत के भव्य-भद्र-स्कन्ध।
बज रहे थे झाँझ, झालर, शंख,
पा गया जयघोष अगणित पंख!
भाव-गद्गद हो रहे थे लोग,
गा रहे थे, रो रहे थे लोग।
बरसता था नेत्र-नीर नितान्त,
मार्ग-रज-कण थे प्रथम ही शान्त।
पाँवड़ों पर, बीच में शव-यान,
उभय ओर मनुष्य-पंक्ति महान।
आज पैदल थे सभी सत्पात्र,
वाहनों पर नृप-समादर मात्र।
शेष-दर्शन कर सभक्ति, सयत्न,
जन लुटाते थे वसन, धन, रत्न।
आ गया सब संघ सरयू-तीर,
करुण-गद्गद था सहज ही नीर।
आप सरिता वीचि-वेणी खोल
कर रही थी कल-विलाप विलोल!