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+ | है महायात्रा यही, इस हेतु, | ||
+ | फहरने दो आज सौ सौ केतु! | ||
+ | घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर, | ||
+ | सूचना हो जाए चारों ओर-- | ||
+ | सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति, | ||
+ | और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति! | ||
+ | अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व, | ||
+ | आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व! | ||
+ | सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज; | ||
+ | बस, यही अन्तिम विदा है आज। | ||
+ | सूत, मागध, वन्दि आदि अभीत, | ||
+ | गा उठें जीवन-विजय के गीत-- | ||
+ | तुच्छ कर नृप मृत्यु-पक्ष समक्ष, | ||
+ | पा गये हैं आज अपना लक्ष। | ||
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+ | राजगृह की वह्नि बाहर जोड़, | ||
+ | कर उठे द्विज होम--आहुति छोड़। | ||
+ | कुल-पुरोहित और कुल-आचार्य, | ||
+ | भरत युत करने लगे सब कार्य। | ||
+ | शव बना था शिव-समाधि-समान, | ||
+ | था शिवालय-तुल्य शिविका यान। | ||
+ | और जिनसे था वहन-सम्बन्ध, | ||
+ | थे भरत के भव्य-भद्र-स्कन्ध। | ||
+ | बज रहे थे झाँझ, झालर, शंख, | ||
+ | पा गया जयघोष अगणित पंख! | ||
+ | भाव-गद्गद हो रहे थे लोग, | ||
+ | गा रहे थे, रो रहे थे लोग। | ||
+ | बरसता था नेत्र-नीर नितान्त, | ||
+ | मार्ग-रज-कण थे प्रथम ही शान्त। | ||
+ | पाँवड़ों पर, बीच में शव-यान, | ||
+ | उभय ओर मनुष्य-पंक्ति महान। | ||
+ | आज पैदल थे सभी सत्पात्र, | ||
+ | वाहनों पर नृप-समादर मात्र। | ||
+ | शेष-दर्शन कर सभक्ति, सयत्न, | ||
+ | जन लुटाते थे वसन, धन, रत्न। | ||
+ | आ गया सब संघ सरयू-तीर, | ||
+ | करुण-गद्गद था सहज ही नीर। | ||
+ | आप सरिता वीचि-वेणी खोल | ||
+ | कर रही थी कल-विलाप विलोल! | ||
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20:40, 26 जनवरी 2010 का अवतरण
है महायात्रा यही, इस हेतु,
फहरने दो आज सौ सौ केतु!
घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर,
सूचना हो जाए चारों ओर--
सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति,
और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति!
अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व,
आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व!
सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज;
बस, यही अन्तिम विदा है आज।
सूत, मागध, वन्दि आदि अभीत,
गा उठें जीवन-विजय के गीत--
तुच्छ कर नृप मृत्यु-पक्ष समक्ष,
पा गये हैं आज अपना लक्ष।
राजगृह की वह्नि बाहर जोड़,
कर उठे द्विज होम--आहुति छोड़।
कुल-पुरोहित और कुल-आचार्य,
भरत युत करने लगे सब कार्य।
शव बना था शिव-समाधि-समान,
था शिवालय-तुल्य शिविका यान।
और जिनसे था वहन-सम्बन्ध,
थे भरत के भव्य-भद्र-स्कन्ध।
बज रहे थे झाँझ, झालर, शंख,
पा गया जयघोष अगणित पंख!
भाव-गद्गद हो रहे थे लोग,
गा रहे थे, रो रहे थे लोग।
बरसता था नेत्र-नीर नितान्त,
मार्ग-रज-कण थे प्रथम ही शान्त।
पाँवड़ों पर, बीच में शव-यान,
उभय ओर मनुष्य-पंक्ति महान।
आज पैदल थे सभी सत्पात्र,
वाहनों पर नृप-समादर मात्र।
शेष-दर्शन कर सभक्ति, सयत्न,
जन लुटाते थे वसन, धन, रत्न।
आ गया सब संघ सरयू-तीर,
करुण-गद्गद था सहज ही नीर।
आप सरिता वीचि-वेणी खोल
कर रही थी कल-विलाप विलोल!