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"ऋतुओं की पुत्री / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

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ओ ऋतुओं की पुत्री !
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वह पगडंडी
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याद है तुम्हें बरसों पहले की
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अपनी आंखों का रंग
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एक मामूली से शहर की वह लड़की
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इसी नाम से याद आती है
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पीछे रह गये मौसम
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नदी का जल-स्वर, फूल की लतरें
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पगडंडी का अकेलापन
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दुख-सुख, प्रेम-अप्रेम से परे
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जीवन का विराट चक्र
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पीछे छूट गया नदी का जल-स्वर
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सपनों की एक बहुत बड़ी नाव
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न जाने किस द्वीप ले गयी
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बटोर कर सारे गीत, सारे फूल, सारी हंसी
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शायद न लौटे नदी का जल
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पर तुम लौटना कभी ।
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15:41, 10 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

ओ ऋतुओं की पुत्री !
क्या याद हैं तुम्हें वे पुराने गीत
गेंदा-फूल, वन-चमेली, वन-जूही के शब्द
वह पगडंडी
नदी तट-तट दूर तक जाता वह रास्ता
घास का एक निर्जन मैदान
पावस की जल-धाराओं से भीगती पहाड़ी?

याद है तुम्हें बरसों पहले की
अपनी आंखों का रंग
आकाश का नीलापन ?

इतने सारे माह, दिन और बरस गये हैं बीत
एक मामूली से घर
एक मामूली से शहर की वह लड़की
इसी नाम से याद आती है

इसी नाम से याद आते हैं
मैदान, फूल, लतरें, दरख़्त और आकाश

बरसों पहले
ऋतुओं की उस पुत्री का ब्याह हुआ
लकड़ी के दरवाजों वाला घर छूट गया
पीछे रह गये मौसम
नदी का जल-स्वर, फूल की लतरें
पगडंडी का अकेलापन
दुख-सुख, प्रेम-अप्रेम से परे
जीवन का विराट चक्र

पीछे छूट गया नदी का जल-स्वर
सपनों की एक बहुत बड़ी नाव
न जाने किस द्वीप ले गयी
बटोर कर सारे गीत, सारे फूल, सारी हंसी

शायद न लौटे नदी का जल
पर तुम लौटना कभी ।