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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ १३" के अवतरणों में अंतर

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अवधि होगई पूर्ण अन्त में,
 
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सुयश छा रहा है दिगन्त में।
 
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स्वजनि, धन्य है आज की घड़ी,
 
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तदपि खिन्न-सी तू यहाँ खड़ी!
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त्वरित आरती ला, उतार लूँ,
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पद दृगम्बु से मैं पखार लूँ।
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चरण हैं भरे देख, धूल से,
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विरह-सिन्धु में प्राप्त कूल-से।
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विकट क्या जटाजूट है बना,
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भृकुटि युग्म में चाप-सा तना।
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वदन है भरा मन्द हास से,
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गलित चन्द्र भी श्री-विलास से।
  
 
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21:44, 12 फ़रवरी 2010 का अवतरण

हहह! उर्मिला भ्रान्त है, रहे,
यह असत्य तो सत्य भी बहे।
ज्वलित प्राण भी प्राण पागये,
सुभग आगये, कान्त आगये!
निकल हंस-से केकि-कुंज से,
निरख वे खड़े प्रेम-पुंज-से!
रुचिर चन्द्र की चन्द्रिका खिली,
निज अशोक से मल्लिका मिली।
अवधि होगई पूर्ण अन्त में,
सुयश छा रहा है दिगन्त में।
स्वजनि, धन्य है आज की घड़ी,
तदपि खिन्न-सी तू यहाँ खड़ी!
त्वरित आरती ला, उतार लूँ,
पद दृगम्बु से मैं पखार लूँ।
चरण हैं भरे देख, धूल से,
विरह-सिन्धु में प्राप्त कूल-से।
विकट क्या जटाजूट है बना,
भृकुटि युग्म में चाप-सा तना।
वदन है भरा मन्द हास से,
गलित चन्द्र भी श्री-विलास से।