भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अब भी / चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्र रेखा ढडवाल |संग्रह=औरत / चंद्र रेखा ढडवाल }}…)
 
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
स्याह अँधेरों में से
 
स्याह अँधेरों में से
 
निकलना तो चाहती हूँ
 
निकलना तो चाहती हूँ
पर रौशनी अब भी
+
पर रोशनी अब भी
 
कभी-कभार चमक जाते
 
कभी-कभार चमक जाते
 
जुगनुओं के पिछवाड़े
 
जुगनुओं के पिछवाड़े

07:29, 17 जुलाई 2010 के समय का अवतरण


मेरे होने पर
कालिख मलते
मेरे पाँव तले से
रास्ते खींचते
स्याह अँधेरों में से
निकलना तो चाहती हूँ
पर रोशनी अब भी
कभी-कभार चमक जाते
जुगनुओं के पिछवाड़े
बोझ भर ही है.