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"समर निंद्य है / भाग ३ / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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− | जीती है यह शान्ति, दाह<br> | + | ::जीती है यह शान्ति, दाह<br> |
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− | धर्मराज व्यंजित करते तुम<br> | + | ::धर्मराज व्यंजित करते तुम<br> |
− | मानव की कदराई।<br><br> | + | ::मानव की कदराई।<br><br> |
हिंसा का आघात तपस्या ने<br> | हिंसा का आघात तपस्या ने<br> | ||
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से हारता रहा है।<br><br> | से हारता रहा है।<br><br> | ||
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− | लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?<br> | + | ::लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?<br> |
− | फिर आये क्यों वन से?<br><br> | + | ::फिर आये क्यों वन से?<br><br> |
पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह<br> | पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह<br> | ||
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कहलायी दासी।<br><br> | कहलायी दासी।<br><br> | ||
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− | सबका लिया सहारा;<br> | + | ::सबका लिया सहारा;<br> |
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− | कहो, कहाँ कब हारा?<br><br> | + | ::कहो, कहाँ कब हारा?<br><br> |
01:49, 1 अगस्त 2008 का अवतरण
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है
जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का
सुदृढ़ नहीं रह पाता।
- कृत्रिम शान्ति सशंक आप
- अपने से ही डरती है,
- खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
- कभी नहीं करती है|
- कृत्रिम शान्ति सशंक आप
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था
में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन -
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
- पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
- शोणित पी कर तन का,
- जीती है यह शान्ति, दाह
- समझो कुछ उनके मन का।
- पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
स्वत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?
- न्यायोचित अधिकार माँगने
- से न मिले, तो लड़ के,
- तेजस्वी छीनते समर को
- जीत, या कि खुद मर के।
- न्यायोचित अधिकार माँगने
किसने कहा पाप है समुचित
स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?
उठा न्याय का खड्ग समर में
अभय मारना-मरना?
- क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
- की दे वृथा दुहाई,
- धर्मराज व्यंजित करते तुम
- मानव की कदराई।
- क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।
- मन:शक्ति प्यारी थी तुमको
- यदि पौरुष ज्वलन से,
- लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
- फिर आये क्यों वन से?
- मन:शक्ति प्यारी थी तुमको
पिया भीष्म ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी।
- क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
- सबका लिया सहारा;
- पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
- कहो, कहाँ कब हारा?
- क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,