भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लाल किला / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
कंकड़ीले काल-पथ पर खड़ा  
 
कंकड़ीले काल-पथ पर खड़ा  
 
कायान्तरण के दमनकारी झंझावात में
 
कायान्तरण के दमनकारी झंझावात में
ऐतिहासिक होने पर अदा
+
ऐतिहासिक होने पर अड़ा
 
मौलिकता का मोहताज़
 
मौलिकता का मोहताज़
मैं--एक मारियाल नपुंसक घोडा हूं
+
मैं--एक मारियाल नपुंसक घोड़ा हूं
  
 
साल में एकाध बार  
 
साल में एकाध बार  
पंक्ति 37: पंक्ति 37:
 
बेशकीमती साज-सामान
 
बेशकीमती साज-सामान
 
कौड़ी के भाव इन्सान
 
कौड़ी के भाव इन्सान
और बहुरुपी विदेशीपन के नाम पर ईमान,
+
और बहुरूपिये विदेशीपन के नाम पर ईमान,
यहां धेरों लगती है दुकानें
+
यहां ढेरों लगती है दुकानें
जबके तेधी खीर है
+
जबकि टेढ़ी खीर है
 
क्रेता-विक्रेता की करनी पहचान   
 
क्रेता-विक्रेता की करनी पहचान   
 
क्योंकि यहां ग्राहक भी  
 
क्योंकि यहां ग्राहक भी  
पंक्ति 57: पंक्ति 57:
 
ठुमकते क्रीड़ारत बच्चों  
 
ठुमकते क्रीड़ारत बच्चों  
 
ऐंठते-अकड़ते जवानों
 
ऐंठते-अकड़ते जवानों
बैसाखियाँ थामे बूढों जैसे  
+
बैसाखियाँ थामे बूढ़ों जैसे  
 
गुजरते,गुजरते गुजरते हुए
 
गुजरते,गुजरते गुजरते हुए
 
और देखा है काल-वलय को
 
और देखा है काल-वलय को

16:25, 23 अगस्त 2010 का अवतरण


लाल किला

कंकड़ीले काल-पथ पर खड़ा
कायान्तरण के दमनकारी झंझावात में
ऐतिहासिक होने पर अड़ा
मौलिकता का मोहताज़
मैं--एक मारियाल नपुंसक घोड़ा हूं

साल में एकाध बार
हिन्दुस्तानियत की जर्जर काठी डालकर
मुझ पर सवारी की जाती है
लोकतन्त्र की मुनादी की जाती है

यों तो, काल के दस्तावेज पर
मैं हूं--ऐतिहासिक हस्ताक्षर
जिसकी प्रामानिकता का जायज़ा लेने
अतीत खांस-खखार कर
दस्तक दे जाता है बार-बार--
मेरे जर्जर दरवाजे पर
और मैं अपना जिस्म उघार
दिखाता हूं उसे आर-पार
तो वह मेरी दुरावस्था पर
चला जाता है थूक कर

कबाड़ेदार महानगर में
एक क्षमतावान कूड़ादान हूं मैं
और मेरी नाक की सीध में
क्या नहीं बिकता?
बेशकीमती साज-सामान
कौड़ी के भाव इन्सान
और बहुरूपिये विदेशीपन के नाम पर ईमान,
यहां ढेरों लगती है दुकानें
जबकि टेढ़ी खीर है
क्रेता-विक्रेता की करनी पहचान
क्योंकि यहां ग्राहक भी
तिजारत करते हैं
जिस्म भी किचेनवेयर जैसे बिकते हैं

मेरी आँखों के नीचे
औरत-मर्द खड़े-खड़े
यान्त्रिक डिब्बों जैसे अटे-सटे
जिस अन्दाज में
सहवास कर लेते हैं
जानवर उसके लिए
सदियों से तरसते रहे हैं

अपनी दाढ़ के नीचे से
मैने शताब्दियाँ देखी हैं--
ठुमकते क्रीड़ारत बच्चों
ऐंठते-अकड़ते जवानों
बैसाखियाँ थामे बूढ़ों जैसे
गुजरते,गुजरते गुजरते हुए
और देखा है काल-वलय को
अपने चारो ओर
उमड़-घुमड़ परिक्रमा करते हुए

शोख शहंशाहों, शाहजादों को