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"उत्तर काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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|पीछे=लंकाकाण्ड / भाग २ / रामचरितमानस / तुलसीदास
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 +
<poem>
 +
श्री गणेशाय नमः
 +
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
 +
श्रीरामचरितमानस
  
<center><font size=1>श्रीगणेशायनमः</font></center><br>
+
सप्तम सोपान
<center><font size=1>श्रीजानकीवल्लभो विजयते</font></center><br><br>
+
(उत्तरकाण्ड)
<center><font size=6>श्रीरामचरितमानस</font></center><br><br>
+
 
<center><font size=4>सप्तम सोपान</font></center><br><br>
+
श्लोक
<center><font size=5>उत्तरकाण्ड</font></center><br><br>
+
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
<span class="shloka">श्लोक<br>
+
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं<br>
+
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।<br>
+
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥1॥
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं<br>
+
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।1।।<br>
+
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ॥2॥
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।<br>
+
कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ।।2।।<br>
+
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्॥3॥
कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।<br>
+
दो0-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्।।3।।<br>
+
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥
दो0-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।<br>
+
 
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग।।<br>
+
चौ0-सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
<br>
+
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर॥
चौ0-सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।<br>
+
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर।।<br>
+
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ॥
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।<br>
+
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ।।<br>
+
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार॥
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।<br>
+
रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार।।<br>
+
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥
रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा।।<br>
+
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी॥
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।।<br>
+
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी।।<br>
+
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।<br>
+
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी।।<br>
+
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ।।<br>
+
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।<br>
+
दो0-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।<br>
+
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत॥1(क)
दो0-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।<br>
+
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत।।1(क)।।<br>
+
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात॥1(ख)
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।<br>
+
 
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात।।1(ख)।।<br>
+
देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥
<br>
+
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥
देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ।।<br>
+
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।।<br>
+
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती।।<br>
+
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता।।<br>
+
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत।।<br>
+
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।।<br>
+
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।।<br>
+
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना।।<br>
+
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता॥
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर।।<br>
+
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता।।<br>
+
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते।।<br>
+
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता।।<br>
+
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं।।<br>
+
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।।<br>
+
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं॥
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।<br>
+
छं0-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।<br>
+
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो॥
छं0-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।<br>
+
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो।।<br>
+
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।<br>
+
दो0-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो।।<br>
+
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥2(क)
दो0-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।<br>
+
सो0-भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात।।2(क)।।<br>
+
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि॥2(ख)
सो0-भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।<br>
+
 
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2(ख)।।<br>
+
हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥
<br>
+
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥
हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए।।<br>
+
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई॥
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई।।<br>
+
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई।।<br>
+
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए।।<br>
+
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी॥
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला।।<br>
+
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी।।<br>
+
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं।।<br>
+
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई।।<br>
+
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी।।<br>
+
दो0-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा।।<br>
+
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥3(क)
दो0-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।<br>
+
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत।।3(क)।।<br>
+
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान॥3(ख)
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।<br>
+
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान।।3(ख)।।<br>
+
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान॥3(ग)
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।<br>
+
 
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान।।3(ग)।।<br>
+
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
<br>
+
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर।।<br>
+
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा।।<br>
+
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।<br>
+
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।<br>
+
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि।।<br>
+
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा।।<br>
+
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।<br>
+
दो0-आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी।।<br>
+
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान॥4(क)
दो0-आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।<br>
+
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान।।4(क)।।<br>
+
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु॥4(ख)
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।<br>
+
 
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु।।4(ख)।।<br>
+
आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
<br>
+
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥
आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा।।<br>
+
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक।।<br>
+
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह।।<br>
+
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया।।<br>
+
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा।।<br>
+
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज।।<br>
+
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए।।<br>
+
छं0-राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े।।<br>
+
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
छं0-राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।<br>
+
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।<br>
+
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥1॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।<br>
+
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।1।।<br>
+
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।<br>
+
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई।।<br>
+
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥2॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।<br>
+
दो0-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो।।2।।<br>
+
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
दो0-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।<br>
+
 
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।<br>
+
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥
<br>
+
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे।।<br>
+
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।<br>
+
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी।।<br>
+
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।<br>
+
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।<br>
+
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।<br>
+
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना।।<br>
+
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा।।<br>
+
छं0-जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई।।<br>
+
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई॥
छं0-जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।<br>
+
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई।।<br>
+
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।<br>
+
दो0-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे।।<br>
+
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि॥6(क)
दो0-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।<br>
+
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि।।6(क)।।<br>
+
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥6॥
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।<br>
+
 
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ।।6।।<br>
+
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही॥
<br>
+
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही।।<br>
+
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता।।<br>
+
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं।।<br>
+
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं।।<br>
+
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं।।<br>
+
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि।।<br>
+
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।<br>
+
दो0-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे।।<br>
+
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥7॥
दो0-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।<br>
+
 
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु।।7।।<br>
+
लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला॥
<br>
+
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥
लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला।।<br>
+
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा।।<br>
+
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती॥
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।।<br>
+
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती।।<br>
+
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए।।<br>
+
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे।।<br>
+
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे।।<br>
+
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे।।<br>
+
दो0-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए।।<br>
+
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥8(क)
दो0-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।।<br>
+
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ।।8(क)।।<br>
+
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥8(ख)
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।<br>
+
 
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद।।8(ख)।।<br>
+
कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
<br>
+
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥
कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।।<br>
+
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई॥
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू।।<br>
+
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई।।<br>
+
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं॥
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे।।<br>
+
कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना॥
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं।।<br>
+
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥
कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना।।<br>
+
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।।<br>
+
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना।।<br>
+
दो0-नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।।<br>
+
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥9(क)
दो0-नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।<br>
+
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस।।9(क)।।<br>
+
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान॥9(ख)
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।<br>
+
 
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9(ख)।।<br>
+
प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
<br>
+
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥
प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।<br>
+
कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।<br>
+
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥
कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए।।<br>
+
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।<br>
+
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन।।<br>
+
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।<br>
+
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै॥
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका।।<br>
+
दो0-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै।।<br>
+
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥10(क)
दो0-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।<br>
+
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10(क)।।<br>
+
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥10(ख)
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।<br>
+
 
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10(ख)।।<br>
+
नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम<br>
+
 
<br>
+
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई।।<br>
+
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई।।<br>
+
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए।।<br>
+
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे।।<br>
+
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई।।<br>
+
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई।।<br>
+
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए॥
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए।।<br>
+
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे।।<br>
+
दो0-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दो0-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।<br>
+
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥11(क)
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ।।11(क)।।<br>
+
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।<br>
+
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥11(ख)
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि।।11(ख)।।<br>
+
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।<br>
+
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद॥11(ग)
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद।।11(ग)।।<br>
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+
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा॥
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा।।<br>
+
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।<br>
+
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।<br>
+
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।<br>
+
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।<br>
+
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी।।<br>
+
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।<br>
+
सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं।।<br>
+
छं0-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
छं0-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।<br>
+
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।।<br>
+
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।<br>
+
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते॥1॥
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।।1।।<br>
+
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।<br>
+
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई॥
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।<br>
+
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।<br>
+
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥2॥
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।<br>
+
दो0-वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
दो0-वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।<br>
+
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस॥12(क)
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस।।12(क)।।<br>
+
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।<br>
+
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम॥ 12(ख)
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।। 12(ख)।।<br>
+
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।<br>
+
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान॥12(ग)
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।12(ग)।।<br>
+
 
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+
छं0-जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।
छं0-जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।<br>
+
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।<br>
+
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।<br>
+
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥1॥
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।।1।।<br>
+
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।<br>
+
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।।<br>
+
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।<br>
+
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥2॥
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे।।2।।<br>
+
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।<br>
+
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।<br>
+
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।<br>
+
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥3॥
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे।।3।।<br>
+
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।<br>
+
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी॥
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी।।<br>
+
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।<br>
+
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥4॥
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।4।।<br>
+
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।<br>
+
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।<br>
+
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।<br>
+
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥5॥
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।<br>
+
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।<br>
+
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।<br>
+
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।<br>
+
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥6॥
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।<br>
+
दो0-सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
दो0-सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।<br>
+
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥13(क)
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।।13(क)।।<br>
+
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।<br>
+
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥13(ख)
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13(ख)।।<br>
+
 
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+
छं0- जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं॥
छं0- जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं।।<br>
+
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।<br>
+
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।<br>
+
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।<br>
+
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं॥
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।<br>
+
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।<br>
+
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए।।<br>
+
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।<br>
+
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए।।<br>
+
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।<br>
+
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।।<br>
+
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के।। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।<br>
+
नहिं राग न लोभ न मान मदा॥तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
नहिं राग न लोभ न मान मदा।।तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा।।<br>
+
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।<br>
+
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।<br>
+
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही॥8॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।<br>
+
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।<br>
+
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।<br>
+
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।<br>
+
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।<br>
+
दो0-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
दो0-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।<br>
+
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14(क)
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14(क)।।<br>
+
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।<br>
+
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥14(ख)
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14(ख)।।<br>
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+
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी॥
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी।।<br>
+
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका।।<br>
+
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं।।<br>
+
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं।।<br>
+
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।<br>
+
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी॥
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।।<br>
+
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी।।<br>
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नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी॥
नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी।।<br>
+
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज॥
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।।<br>
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मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए।।<br>
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दो0-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
दो0-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।<br>
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जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति॥15॥
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।।15।।<br>
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बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही॥
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही।।<br>
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तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए।।<br>
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परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे॥
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे।।<br>
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तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई॥
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई।।<br>
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ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।<br>
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अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही॥
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही।।<br>
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सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना।।<br>
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सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती॥
सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती।।<br>
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दो0-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
दो0-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।<br>
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सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।।16।।<br>
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सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए।।<br>
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एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।।<br>
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परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा।।<br>
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प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।<br>
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तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए।।<br>
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सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।<br>
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प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए।।<br>
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अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।<br>
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दो0-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
दो0-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।<br>
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हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ॥17(क)
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17(क)।।<br>
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तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।<br>
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अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि॥17(ख)
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17(ख)।।<br>
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सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।।<br>
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मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली।।<br>
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असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।<br>
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मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।<br>
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तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।<br>
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बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।<br>
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नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।<br>
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अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।<br>
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दो0-अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
दो0-अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।<br>
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प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥18(क)
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।18(क)।।<br>
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निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।<br>
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बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥18(ख)
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।18(ख)।।<br>
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भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता।।<br>
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अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा।।<br>
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बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा।।<br>
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राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।<br>
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प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी।।<br>
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अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए।।<br>
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तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना।।<br>
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दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा।।<br>
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पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा।।<br>
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अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता।।<br>
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दो0-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
दो0-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।<br>
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बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥19(क)
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि।।19(क)।।<br>
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अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।<br>
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तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत॥19(ख)
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत।।19(ख)।।<br>
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कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।<br>
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चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥19(ग)
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि।।19(ग)।।<br>
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पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा।।<br>
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जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू।।<br>
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तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।।<br>
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बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी।।<br>
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चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।<br>
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रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।<br>
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राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।<br>
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बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई।।<br>
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दो0-बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।
दो0-बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।<br>
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चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥20॥
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।20।।<br>
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दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।<br>
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सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।<br>
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चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।<br>
+
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।<br>
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अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।<br>
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नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।<br>
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सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।<br>
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सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।<br>
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दो0-राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं॥
दो0-राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।।<br>
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काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं॥21॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।21।।<br>
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भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥
भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला।।<br>
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भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।।<br>
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सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी।।<br>
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सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी॥
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी।।<br>
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सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला॥
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला।।<br>
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राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा॥
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।<br>
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सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।<br>
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एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।<br>
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दो0-दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
दो0-दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।<br>
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जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥22॥
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज।।22।।<br>
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फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन॥
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन।।<br>
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खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।<br>
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कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।<br>
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सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा॥
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा।।<br>
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लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं॥
लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं।।<br>
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ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी।।<br>
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प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी।।<br>
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सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी।।<br>
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सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।<br>
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सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।<br>
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दो0-बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
दो0-बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।<br>
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मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज॥23॥
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज।।23।।<br>
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कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे।।<br>
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श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर।।<br>
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पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता॥
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता।।<br>
+
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई॥
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई।।<br>
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जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी।।<br>
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निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥
निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई।।<br>
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जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ।।<br>
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कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।।<br>
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उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता॥
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता।।<br>
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दो0-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
दो0-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।<br>
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राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ॥24॥
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ।।24।।<br>
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+
सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई॥
सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई।।<br>
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प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।<br>
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राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती॥
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती।।<br>
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हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।<br>
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अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं॥
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं।।<br>
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दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए।।<br>
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दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर।।<br>
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दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे।।<br>
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दो0-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
दो0-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।<br>
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सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥25॥
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार।।25।।<br>
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प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन।।<br>
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बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं।।<br>
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अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं।।<br>
+
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई।।<br>
+
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा।।<br>
+
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं।।<br>
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सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना॥
सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना।।<br>
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नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।।<br>
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दो0-अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
दो0-अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।<br>
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सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥26॥
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज।।26।।<br>
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नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा॥
नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा।।<br>
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दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं।।<br>
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जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं।।<br>
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पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।<br>
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नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।<br>
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महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।<br>
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धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत॥
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत।।<br>
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बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।<br>
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छं0-मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
छं0-मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।<br>
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मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची।।<br>
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सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।<br>
+
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे।।<br>
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दो0-चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
दो0-चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।<br>
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राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥27॥
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ।।27।।<br>
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सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई॥
सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई।।<br>
+
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई॥
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई।।<br>
+
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर॥
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।<br>
+
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए।।<br>
+
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत॥
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत।।<br>
+
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं।।<br>
+
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक।।<br>
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राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू।।<br>
+
छं0-बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
छं0-बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।<br>
+
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए।।<br>
+
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।<br>
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सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।<br>
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दो0-उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
दो0-उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।<br>
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बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥28॥
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।28।।<br>
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दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।<br>
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पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना।।<br>
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राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर।।<br>
+
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर।।<br>
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कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी॥
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी।।<br>
+
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।<br>
+
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई।।<br>
+
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा।।<br>
+
छं0-बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
छं0-बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।<br>
+
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।<br>
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बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।<br>
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आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।<br>
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दो0-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
दो0-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।<br>
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अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।29।।<br>
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जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं।।<br>
+
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि।।<br>
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जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि।।<br>
+
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि।।<br>
+
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि।।<br>
+
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि।।<br>
+
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।।<br>
+
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि।।<br>
+
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि।।<br>
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मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।।<br>
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दो0-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
दो0-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।<br>
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सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान।।30।।<br>
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जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।।<br>
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पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।।<br>
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जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी।।<br>
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अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने।।<br>
+
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।।<br>
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मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा।।<br>
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धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना।।<br>
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सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका।।<br>
+
दो0-यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
दो0-यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।<br>
+
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।।31।।<br>
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भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा।।<br>
+
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए।।<br>
+
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए।।<br>
+
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना।।<br>
+
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा।।<br>
+
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं।।<br>
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तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी।।<br>
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राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।।<br>
+
दो0-देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
दो0-देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।<br>
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स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥32॥
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।<br>
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कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।<br>
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मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।<br>
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स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।<br>
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एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।<br>
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तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।<br>
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कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।<br>
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आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।<br>
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बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।<br>
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दो0-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
दो0-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।<br>
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कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥33॥
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।33।।<br>
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सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।<br>
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जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।<br>
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जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।<br>
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जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।<br>
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ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।<br>
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तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।<br>
+
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय॥
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।<br>
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द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।<br>
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दो0-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
दो0-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।<br>
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प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।<br>
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देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि॥
देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि।।<br>
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प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।<br>
+
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।<br>
+
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।<br>
+
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।<br>
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भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥
भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।<br>
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मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर।।<br>
+
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक।।<br>
+
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन।।<br>
+
दो0-बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
दो0-बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।<br>
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ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ।।35।।<br>
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सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए॥
सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए।।<br>
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पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं।।<br>
+
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी।।<br>
+
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना।।<br>
+
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता॥
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता।।<br>
+
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।।<br>
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तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ।।<br>
+
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।।<br>
+
दो0-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
दो0-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।<br>
+
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह॥36॥
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।<br>
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+
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।।<br>
+
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।<br>
+
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई।।<br>
+
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।<br>
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संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।<br>
+
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।<br>
+
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।<br>
+
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई।।<br>
+
दो0-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
दो0-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।<br>
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अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥37॥
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।<br>
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बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।<br>
+
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी।।<br>
+
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया।।<br>
+
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी।।<br>
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बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन।।<br>
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सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री।।<br>
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ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।<br>
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सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं।।<br>
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दो0-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
दो0-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।<br>
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ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥38॥
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।38।।<br>
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सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।।<br>
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तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई।।<br>
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खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।।<br>
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जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।।<br>
+
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।<br>
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बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।<br>
+
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।<br>
+
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।।<br>
+
दो0-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
दो0-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।<br>
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ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥39॥
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।<br>
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लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न॥
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न।।<br>
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काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।<br>
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जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।<br>
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स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।<br>
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मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं।।<br>
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करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।<br>
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अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी।।<br>
+
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।<br>
+
दो0-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।
दो0-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।<br>
+
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥40॥
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।<br>
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+
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।<br>
+
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।<br>
+
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।।<br>
+
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना।।<br>
+
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता॥
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता।।<br>
+
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने।।<br>
+
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक।।<br>
+
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे।।<br>
+
दो0-सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
दो0-सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।<br>
+
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥41॥
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।41।।<br>
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+
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई॥
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई।।<br>
+
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।<br>
+
पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए॥
पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।<br>
+
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं॥
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।<br>
+
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।<br>
+
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।<br>
+
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।<br>
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सुनि गुन गान समाधि बिसारी॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी।। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।<br>
+
दो0-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
दो0-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।<br>
+
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥42॥
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।<br>
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+
एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए॥
एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए।।<br>
+
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन।।<br>
+
सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी।।<br>
+
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।<br>
+
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।<br>
+
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।।<br>
+
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।।<br>
+
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।<br>
+
दो0-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
दो0-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।<br>
+
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥43॥
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ।।43।।<br>
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+
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।<br>
+
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।<br>
+
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।<br>
+
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।<br>
+
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।<br>
+
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।<br>
+
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।<br>
+
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।<br>
+
दो0-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
दो0-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।<br>
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सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।<br>
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जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू॥
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू।।<br>
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सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।<br>
+
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।<br>
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करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।<br>
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भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।<br>
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पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।<br>
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पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।<br>
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सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।<br>
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दो0-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
दो0-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।<br>
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संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥45॥
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।<br>
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कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा॥
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।<br>
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सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।<br>
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मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।<br>
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बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई।।<br>
+
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।।<br>
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अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।<br>
+
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।<br>
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भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।<br>
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दो0-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
दो0-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।<br>
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ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥46॥
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह।।46।।<br>
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सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के।।<br>
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जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे।।<br>
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तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी।।<br>
+
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।<br>
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हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।<br>
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स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।<br>
+
सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।<br>
+
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई।।<br>
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दो0–उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
दो0–उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।<br>
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ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप॥47॥
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।।47।।<br>
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एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।<br>
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अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।<br>
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राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।<br>
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देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा।।<br>
+
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।<br>
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उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।<br>
+
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही॥
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही।।<br>
+
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा।।<br>
+
दो0–तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
दो0–तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।<br>
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जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥48॥
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन।।48।।<br>
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+
जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥
जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।<br>
+
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।<br>
+
आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥
आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।<br>
+
तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥
तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर।।<br>
+
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ।।<br>
+
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।<br>
+
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित॥
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।<br>
+
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई।।<br>
+
दो0-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
दो0-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।<br>
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जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥49॥
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।<br>
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+
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए॥
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए।।<br>
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हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता।।<br>
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पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए॥
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए।।<br>
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देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे।।<br>
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हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई।।<br>
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भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।।<br>
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मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।<br>
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हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।<br>
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गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई।।<br>
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दो0-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
दो0-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।<br>
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गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन॥50॥
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।<br><br>
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</poem>

12:38, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस

सप्तम सोपान
(उत्तरकाण्ड)

श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥1॥
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ॥2॥
कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्॥3॥
दो0-रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥

चौ0-सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर॥
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ॥
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार॥
रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कारन कवन नाथ नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥
दो0-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत॥1(क)॥
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात॥1(ख)॥

देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
दीनबंधु रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते॥
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं॥
छं0-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
दो0-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥2(क)॥
सो0-भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि॥2(ख)॥

हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥
पुनि मंदिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी॥
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥
दो0-हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥3(क)॥
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान॥3(ख)॥
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान॥3(ग)॥

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥
दो0-आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान॥4(क)॥
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु॥4(ख)॥

आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥
छं0-राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥1॥
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥2॥
दो0-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥

भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥
छं0-जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई॥
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
दो0-भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि॥6(क)॥
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥6॥

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥
दो0-लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥7॥

लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला॥
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥
देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती॥
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥
दो0-कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ॥
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥8(क)॥
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥8(ख)॥

कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई॥
नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं॥
कंचन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना॥
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥
पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥
दो0-नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥9(क)॥
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान॥9(ख)॥

प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥
कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै॥
दो0-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥10(क)॥
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥10(ख)॥

नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम

अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे॥
दो0-सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥11(क)॥
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥11(ख)॥
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद॥11(ग)॥

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई॥
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं॥
छं0-नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते॥1॥
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥2॥
दो0-वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस॥12(क)॥
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम॥ 12(ख)॥
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान॥12(ग)॥

छं0-जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥1॥
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥2॥
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥3॥
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥4॥
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥5॥
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥6॥
दो0-सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥13(क)॥
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥13(ख)॥

छं0- जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं॥
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के॥ प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥
नहिं राग न लोभ न मान मदा॥तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही॥8॥
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
दो0-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14(क)॥
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥14(ख)॥

सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई॥
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी॥
नित नव मंगल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी॥
नित नइ प्रीति राम पद पंकज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए॥
दो0-ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति॥15॥

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माही॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए॥
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे॥
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥
अनुज राज संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥
सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती॥
दो0-अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥

सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए॥
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥
दो0-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ॥17(क)॥
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि॥17(ख)॥

सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली॥
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥
दो0-अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥18(क)॥
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥18(ख)॥

भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥
बार बार कर दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
अस कहि कपि सब चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥
दो0-कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥19(क)॥
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत॥19(ख)॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥19(ग)॥

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥
राम राज बैंठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥
दो0-बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥20॥

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥
दो0-राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं॥21॥

भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी॥
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला॥
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी॥
दो0-दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥22॥

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पंचानन॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥
सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गूंजत अलि लै चलि मकरंदा॥
लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥
दो0-बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज॥23॥

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर॥
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता॥
जानति कृपासिंधु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई॥
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता॥
दो0-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ॥24॥

सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं॥
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा॥
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं॥
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥
दो0-ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥25॥

प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥
सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥
दो0-अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥26॥

नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥
छं0-मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
दो0-चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥27॥

सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई॥
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई॥
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू॥
छं0-बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
दो0-उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥28॥

दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥
राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥
छं0-बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
दो0-रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥
दो0-एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥

जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥
सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥
दो0-यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥
दो0-देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥32॥

कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥
दो0-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥33॥

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय॥
दो0-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥

देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मन मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥
दो0-बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥

सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥
जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥
दो0-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह॥36॥

करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
दो0-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥37॥

बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
दो0-निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥38॥

सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥
झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा॥
दो0-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥39॥

लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥
जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा॥
अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥
दो0-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥40॥

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥
दो0-सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥41॥

श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा॥
पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए॥
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं॥
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी॥
दो0-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥42॥

एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥
सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
दो0-सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥43॥

एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
दो0-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥
दो0-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥45॥

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥
दो0-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥46॥

सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥
तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥
दो0–उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप॥47॥

एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा॥
दो0–तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥48॥

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥
आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥
तब पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई॥
दो0-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥49॥

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता॥
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥
मारुतसुत तब मारूत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥
दो0-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन॥50॥