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"लहर2 / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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::(1)
 
 
उठ उठ री लघु लोल लहर!
 
उठ उठ री लघु लोल लहर!
 
करुणा की नव अंगड़ाई-सी,
 
करुणा की नव अंगड़ाई-सी,
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आ चूम पुलिन के बिरस अधर!
 
आ चूम पुलिन के बिरस अधर!
  
::(2)
 
निज अलकों के अन्धकार मे तुम कैसे छिप आओगे?
 
इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे!
 
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँपकर उन्हें नहीं
 
दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर बही।
 
वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी ।
 
प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी ।
 
देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ।
 
कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ ।
 
फिर कह दोगे;पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो ।
 
किन्तु उन्हीं अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो।
 
सिहर रेत निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो ।
 
बेला बीत चली हैं चंचल बाहु-लता से आ जकड़ो।
 
 
तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?
 
इसमें क्या है धरा, सुनो,
 
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित
 
मेरे क्षितिज! उदार बनो।
 
 
::(3)
 
मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
 
मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
 
इस गम्भीर अनन्त नीलिमा मे असंख्य जीवन-इतिहास
 
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।
 
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती
 
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
 
किन्तु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करनेवाले
 
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरनेवाले।
 
यह बिडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
 
भूले अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं ।
 
उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की।
 
अरे खिलखिलाकर हँसते होनेवाली उन बातों की ।
 
मिला कहाँ वह सुख जिसका स्वप्न देखकर जाग गया?
 
आलिंगन मे आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया ?
 
जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में।
 
अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
 
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक का पन्था की।
 
सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?
 
छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
 
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों को सुनता मै मौन रहूँ?
 
सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म कथा?
 
अभी समय भी नहीं-थकी सोई हैं मेरी मौन व्यथा।
 
 
::(4)
 
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
 
मेरे नाविक! धीरे धीरे।
 
 
जिस निर्जन में सागर लहरी।
 
अम्बर के कानों में गहरी
 
निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
 
तज कोलाहल की अवनी रे।
 
 
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
 
ढोले अपनी कोमल काया,
 
नील नयन से ढुलकाती हो
 
ताराओं की पाँत घनी रे ।
 
 
जिस गम्भीर मधुर छाया में
 
विश्व चित्र-पट चल माया में
 
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
 
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
 
 
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
 
जहाँ सृजन करते मेला से
 
अमर जागरण उषा नयन से
 
बिखराती हो ज्योति घनी से!
 
 
::(5)
 
हे सागर संगम अरुण नील!
 
 
अतलान्त महा गंभीर जलधि
 
तज कर अपनी यह नियत अवधि,
 
लहरों के भीषण हासों में
 
आकर खारे उच्छ्वासों में
 
 
युग युग की मधुर कामना के
 
बन्धन को देता ढील।
 
हे सागर संगम अरुण नील।
 
 
पिंगल किरनों-सी मधु-लेखा,
 
हिमशैल बालिका को तूने कब देखा!
 
 
कवरल संगीत सुनाती,
 
किस अतीत युग की गाथा गाती आती।
 
 
आगमन अनन्त मिलन बनकर
 
बिखराता फेनिल तरल खील।
 
हे सागर संगम अरुण नील!
 
 
आकुल अकूल बनने आती,
 
अब तक तो है वह आती,
 
 
देवलोक की अमृत कथा की माया
 
छोड़ हरित कानन की आलस छाया
 
 
विश्राम माँगती अपना।
 
जिसका देखा था सपना
 
 
निस्सीम व्योम तल नील अंक में
 
अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?
 
हे सागर संगम अरुण नील!
 
 
::(6)
 
उस दिन जब जीवन के पथ में,
 
छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,
 
मधु-भिक्षा की रटन अधर में,
 
इस अनजाने निकट नगर में,
 
आ पहुँचा था एक अकिंचन।
 
 
लोगों की आखें ललचाईं,
 
स्वयं माँगने को कुछ आईं,
 
मधु सरिता उफनी अकुलाईं,
 
देने को अपना संचित धन।
 
 
फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,
 
आँखें करने लगी ठिठोली;
 
हृदय ने न सम्हाली झोली,
 
लुटने लगे विकल पागल मन।
 
 
छिन्न पात्र में था भर आता
 
वह रस बरबस था न समाता;
 
स्वयं चकित-सा समझ न पाता
 
कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!
 
 
मधु-मंगल की वर्षा होती,
 
काँटों ने भी पहना मोती,
 
जिसे बटोर रही थी रोती
 
आशा, समझ मिला अपना धन।
 
 
::(7)
 
बीती विभावरी जाग री!
 
 
अम्बर पनघट में डूबो रही
 
तारा-घट उषा नागरी।
 
 
खग-कुल कुल कुल-सा बोल रहा,
 
किसलय का अंचल डोल रहा,
 
लो यह लतिका भी भर लाई
 
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
 
 
अधरों में राग अमन्द पिये,
 
अलकों में मलयज बन्द किये
 
तू अब तक सोई है आली।
 
आँखों मे भरे विहाग री!
 
 
::(8)
 
तुम्हारी आँखों का बचपन!
 
 
खेलता था जब अल्हड़ खेल,
 
अजिर के उर में भरा कुलेल,
 
हारता था हँस-हँस कर मन,
 
आह रे, व्यतीत जीवन!
 
 
साथ ले सहचर सरस वसन्त,
 
चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
 
गूँजता किलकारी निस्वन,
 
पुलक उठता तब मलय-पवन।
 
 
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
 
बिछल,चल थक जाता जब हार,
 
छिड़कता अपना गीलापन,
 
उसी रस में तिरता जीवन।
 
 
आज भी हैं क्या नित्य किशोर
 
उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
 
सरलता का वह अपनापन
 
आज भी हैं क्या मेरा धन!
 
 
तुम्हारी आँखों का बचपन!
 
 
::(9)
 
अब जागो जीवन के प्रभात!
 
 
वसुधा पर ओस बने बिखरे
 
हिमकन आँसू जो क्षोम भरे
 
ऊषा बटोरती अरुण गात!
 
 
तम-नयनो की ताराएँ सब
 
मुँद रही किरण दल में हैं अब,
 
चल रहा सुखद यह मलय वात!
 
 
रजनी की लाज समेटी तो,
 
कलरव से उठ कर भेंटो तो,
 
अरुणांचल में चल रही वात।
 
 
::(10)
 
कितने दिन जीवन जल-निधि में
 
 
विकल अनिल से प्रेरित होकर
 
लहरी, कूल चूमने चलकर
 
उठती गिरती-सी रुक-रुककर
 
सृजन करेगी छवि गति-विधि में !
 
 
कितनी मधु-संगीत-निनादित
 
गाथाएँ निज ले चिर-संचित
 
तरल तान गावेगी वंचित!
 
पागल-सी इस पथ निरवधि में!
 
 
दिनकर हिमकर तारा के दल
 
इसके मुकुर वक्ष में निर्मल
 
चित्र बनायेंगे निज चंचल!
 
आशा की माधुरी अवधि में !
 
 
::(11)
 
मेरी आँखों की पुतली में
 
तू बनकर प्रान समा जा रे!
 
 
जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,
 
मन में मलयानिल चन्दन हो,
 
करुणा का नव-अभिनन्दन हो
 
वह जीवन गीत सुना जा रे!
 
 
खिंच जाये अधर पर वह रेखा
 
जिसमें अंकित हो मधु लेखा,
 
जिसको वह विश्व करे देखा,
 
वह स्मिति का चित्र बना जा रे !
 
 
::(13)
 
वसुधा के अंचल पर
 
यह क्या कन-कन-सा गया बिखर?
 
जल शिशु की चंचल कीड़ा-सा,
 
जैसे सरसिज दल पर।
 
 
लालसा निराशा में ढलमल
 
वेदना और सुख में विह्वल
 
यह क्या है रे मानव जीवन?
 
कितना है रहा निखर।
 
 
मिलने चलने जब दो कन,
 
आकर्षण-मय चुम्बन बन,
 
दल के नस-नस मे बह जाती
 
लघु-लघु धारा सुन्दर।
 
 
हिलता-ढुलता चंचल दल,
 
ये सब कितने हैं रहे मचल
 
कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते।
 
कब रुकती लीला निष्ठुर।
 
 
तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?
 
यह रोष भरी लाली क्यों?
 
गिरने दे नयनों से उज्जवल
 
आँसू के कन मनहर।
 
 
वसुधा के अंचल पर।
 
 
::(14)
 
अपलक जगती हो एक रात!
 
 
सब सोये हों इस भूतल में,
 
अपनी निरीहता सम्बल में
 
चलती हो कोई भी न बात!
 
 
पथ सोये हों हरियाली में,
 
हों सुमन सो रहे डाली में,
 
हो अलस उनींदी नखत पाँत!
 
 
नीरव प्रशान्ति का मौन बना,
 
चुपके किसलय से बिछल छता;
 
थकता हो पंथी मलय-बात।
 
 
वक्षस्थल में जो छिपे हुए
 
सोते हों हृदय अभाव लिए
 
उनके स्वप्नों का हो न प्रात।
 
 
::(15)
 
काली आँखों का अन्धकार
 
तब हो जाता है वार पार,
 
मद पिये अचेतन कलाकार
 
उन्मीलित करता क्षितिज पार
 
 
वह चित्र! रंग का ले बहार
 
जिसमें हैं केवल प्यार प्यार!
 
 
केवल स्मितिमय चाँदनी रात,
 
तारा किरनों से पुलक गात,
 
मधुपों मुकुलों के चले घात,
 
आता हैं चुपके मलय वात,
 
 
सपनों के बादल का दुलार।
 
तब दे जाता हैं बूँद चार!
 
 
तब लहरों-सा उठकर अधीर
 
तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर,
 
सूखे किसलय-सा भरा पीर
 
गिर जा पतझड़ का पा समीर।
 
 
पहने छाती पर तरल हार।
 
पागल पुकार फिर प्यार प्यार!
 
 
::(16)
 
अरे कहीं देखा हैं तुमने
 
मुझे प्यार करनेवाले को?
 
मेरी आँखों में आकर फिर
 
आँसू बन ढरनेवाले को?
 
 
सूने नभ में आग जलाकर
 
यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर
 
जीवन सन्ध्या को नहलाकर
 
रिक्त जलधि भरनेवाले को?
 
 
रजनी के लघु-तम कन में
 
जगती की ऊष्मा के वन में
 
उस पर पड़ते तुहिन सघन में
 
छिप, मुझसे डरनेवाले को?
 
 
निष्ठुर खेलों पर जो अपने
 
रहा देखता सुख के सपने
 
आज लगा है क्या वह कँपने
 
देख मौन मरनेवाले को?
 
 
::(17)
 
शशि-सी वह सन्दुर रूप विभा
 
चाहे न मुझे दिखलाना।
 
उसकी निर्मल शीलत छाया
 
हिमकन को बिखरा जाना।
 
 
संसार स्वप्न बनकर दिन-सा
 
आया हैं नहीं जगाने,
 
मेरे जीवन के सुख निशीध!
 
जाते-जाते रूक जाना।
 
 
हाँ, इन जाने की घड़ियों
 
कुछ ठहर नहीं जाओगे?
 
छाया पथ में विश्राम नहीं,
 
है केवल चलते जाना।
 
 
मेरा अनुराग फैलने दो,
 
नभ के अभिनव कलरव में,
 
जाकर सूनेपन के तम में
 
बन किरन कभी आ जाना।
 
 
::(18)
 
अरे आ गई हैं भूली-सी
 
यह मधु ऋतु दो दिन को,
 
 
छोटी-सी कुटिया में रच दूँ,
 
नई व्यथा साथिन को
 
 
वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,
 
नीड़ अलग सबसे हो,
 
झाड़खंड के चिर पतझड़ में
 
भागो सूखे तिनको!
 
 
आशा से अंकुर झूलेंगे
 
पल्लव पुलकित होंगे,
 
मेरे किसलय का लघु भव यह,
 
आह, खलेगा किन को?
 
 
सिहर भरी कँपती आवेंगी
 
मलयानिल की लहरें,
 
चुम्बन लेकर और जगाकर
 
मानस नयन नलिन को।
 
 
जबाकुसुस-सी उषा खिलेगी
 
मेरी लघु प्राची में,
 
हँसी भरे उस अरुण अधर का
 
राग रँगेगा दिन को ।
 
 
अन्धकार का जलधि लाँधकर
 
आवेगी शशि-किरनें,
 
अन्तरिक्ष छिड़केगा कन-कन
 
निशि में मधुर तुहिन को ।
 
 
इस एकान्त सृजन में कोई
 
कुछ बाधा मत डालो,
 
जो कुछ अपने सुन्दर से है
 
दे देने दो इनको ।
 
 
::(11)
 
निधरक तूने ठुकराया तब
 
मेरी टूटी मधु प्याली को,
 
उसके सूखे अधर माँगते
 
तेरे चरणों की लाली को।
 
 
जीवन-रस के बचे हुए कन,
 
बिखरे अम्बर में आँसू बन,
 
वही दे रहा था सावन घन
 
वसुधा की इस हरियाली को।
 
 
निदय हृदय में हूक उठी क्या,
 
सोकर पहली चूक उठी क्या,
 
अरे कसक वह कूक उठी क्या,
 
झंकृत कर सूखी डाली को?
 
 
प्राणों के प्यासे मतवाले
 
ओ झंझा से चलनेवाले।
 
ढलें और विस्मृति के प्याले,
 
सोच न कृति मिटनेवाली को।
 
 
::(20)
 
ओ री मानस की गहराई!
 
 
तू सुप्त, शान्त कितनी शीतल
 
निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल
 
नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,
 
ओ पारदर्शिका! चिर चंचल
 
यह विश्व बना हैं परछाई!
 
 
तेरा विषाद द्रव तरल-तरल
 
मूर्च्छित न रहे ज्यों पिये गरल
 
सुख-लहर उठा री सरल-सरल
 
लधु-लधु सुन्दर-सुन्दर अविरल,
 
तू हँस जीवन की सुधराई!
 
 
हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,
 
हँस खिले कुंज में सकल सुमन,
 
हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,
 
बनकर संसृति के तव श्रम कन,
 
सब कहें दें \'वह राका आई!\'
 
 
हँस ले भय शोक प्रेम या रण,
 
हँस ले काला पट ओढ़ मरण,
 
हँस ले जीवन के लघु-लघु क्षण,
 
देकर निज चुम्बन के मधुकण,
 
नाविक अतीत की उत्तराई!
 
 
::(21)
 
मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,
 
विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,
 
प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर
 
नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर
 
तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,
 
और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,
 
वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?
 
किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?
 
क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?
 
सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,
 
नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,
 
तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है?
 
 
</poem>
 
</poem>

08:21, 2 सितम्बर 2012 का अवतरण

उठ उठ री लघु लोल लहर!
करुणा की नव अंगड़ाई-सी,
मलयानिल की परछाई-सी
इस सूखे तट पर छिटक छहर!

शीतल कोमल चिर कम्पन-सी,
दुर्ललित हठीले बचपन-सी,
तू लौट कहाँ जाती है री
यह खेल खेल ले ठहर-ठहर!

उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,
नर्तित पद-चिह्न बना जाती,
सिकता की रेखायें उभार
भर जाती अपनी तरल-सिहर!

तू भूल न री, पंकज वन में,
जीवन के इस सूनेपन में,
ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!
आ चूम पुलिन के बिरस अधर!