"किताबें / अरुण देव" के अवतरणों में अंतर
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12:33, 24 मई 2020 के समय का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
कुछ किताबें अन्धेरे में चमकती हैं रास्ता देती हुई
तो कुछ कड़ी धूप में कर देती हैं छाँह
कुछ एकांत की उदासी को भर देती हैं
दोस्ती की उजास से
तो कुछ जगा देती हैं आँख खुली नींद से
जिसमें नहीं सुनाई पड़ता अपना ही रुदन
कुछ शोभा होती हैं ड्राइंग रुम की
हर कोई एक नज़र उन्हें देखता है
ऊपर-ही-ऊपर
पर मौन रह जाता है उनका अन्तर्मन
कुछ नीरस होती हैं सूचनाओं सें भरी हुईं
जो न हँसती हैं न मुस्काती हैं
बस यों ही खड़ी रहती हैं चुपचाप
हँसती हुई किताबों का लेखक
जरूरी नहीं है कि हमेशा खिलखिलाता हो
अक्सर गंभीर लोगों ने गहरे व्यंग्य किए हैं
ऐसी किताबें पकड़ लेती हैं बीच रस्ते में ही
और मुश्किल से गला छोड़ती हैं
गमगीन कर देने वाली किताबों का तो अजब हाल है
उसके पाठक तो बस उसी की तलाश में रहते हैं
डूब जाते हैं दु:ख की नदी में
जैसे वह उनकी ही आँख का पानी हो
कुछ तो इतनी सजी संवरी होती हैं कि बस ललचा जाता है जी
पर पुस्तक पकी आँखों से जब गुजरना होता है
शर्मिंदा होकर छुपा लेती हैं अपने पन्ने
कुछ किताबें गुजार देती हैं अपनी जिन्दगी
कुतुबख़ाने के किसी अन्धेरे में
उन तक पहुंचता है कभी-कभी कोई अन्वेषी
थक हार कर खोजते हुए उसी को जैसे
कुछ की कलई एक बार पढ़ते ही उतर जाती है
कुछ को बार-बार पढ़ो तो भी छूट जाता है बहुत कुछ
कुछ किताबें काल को जीत लेती हैं
जन्म लेती रहती हैं उनसे नई किताबें
कुछ किताबें अकाल होती हैं
कब गईं पता भी नहीं चलता
कुछ विनम्रता से खुलती हैं और देर तक पढ़ी जाती हैं
कुछ घमंड़ से ऐठी रहती हैं
कि घुटने लगता है दम
किताबों में कुछ लोग भर देते हैं ज़हर
काले पड़ जाते हैं उनके पन्ने
डरावनी हो जाती है अक्षरों की शक्ल
ऐसी किताबें चाहती हैं बन्द रहना
कोई कभी पढ़ लेता हैं इन्हें
नीली पड़ जाती है उनकी आत्मा
कुछ किताबों में आ बैठती हैं तितलियाँ
परागकण की तरह महकते अक्षरों पर
पर अन्त तक पहुंचते-पहुंचते सूख जाती है सुगन्ध
पन्नों में दबी मिलती है वही तितलियाँ
वे किताबें बहुत बदनसीब होती हैं
जिन्हें लोग बस रट लेते हैं
किताबें नहीं चाहतीं कि उन्हें माना जाए अन्तिम सत्य
अपने हाशिए पर लिखी टिप्पणियाँ उन्हें अच्छी लगती हैं
वे नहीं चाहती बस अगला संस्करण
वे तो चाहती हैं संवर्धित, संशोधित, संस्करण।