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"क्या खूब है / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

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क्या खूब है
कि आदिम आदमी
सभ्य होते-होते
शताब्दियों में
सफेदपोश हुआ
और जब
सफेदपोश आदमी
इस सदी के
छोर पर
पहुँचते-पहुँचते
नकाबपोश हुआ-
न सभ्य रहा-
न आदिम रहा-
न आदमी रहा।

क्या खूब है
कि न्याय का नाटक
खेलते-खेलते
न्याय के पारंगत पात्र,
अब
विश्व के रंगमंच पर,
नरक का नाटक
खेलने में
प्रवीण और पारंगत हुए।

इस तरह
आदमी की क्षय
और
असत्य की जय हुई।

रचनाकाल: ३०-०९-१९७८