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"ओ चिर नीरव / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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घेर ले छाया अमा बन,<br>
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शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन,<br>
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और होंगे नयन सूखे,<br>
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तिल बुझे औ’ पलक रूखे,<br>
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आर्द्र चितवन में यहाँ<br>
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चिनगारियों का एक मेला
शत विद्युतों में दीप खेला!<br><br>
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अन्य होंगे चरण हारे,<br>
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हास का मधु-दूत भेजो,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,<br>
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रोष ती भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो
दुखव्रती निर्माण उन्मद,<br>
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ले मिलेगा उर अचंचल,
यह अमरता नापते पद,<br>
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वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
बाँध देंगे अंक-संसृति<br>
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जान लो वह मिलन एकाकी
से तिमिर में स्वर्ण बेला!<br><br>
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पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला</poem>
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चिनगारियों का एक मेला!<br><br>
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ले मिलेगा उर अचंचल,<br>
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जान लो वह मिलन एकाकी<br>
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विरह में है दुकेला!<br><br>
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पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!<br><br>
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19:26, 10 अगस्त 2009 का अवतरण

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!
घेर ले छाया अमा बन,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन,
और होंगे नयन सूखे,
तिल बुझे औ’ पलक रूखे,
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला

अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,
दुखव्रती निर्माण उन्मद,
यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला!

दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी,
आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो,
रोष ती भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो
ले मिलेगा उर अचंचल,
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला