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खुद अपनी ही आँखों से आँखें चुराता
उतर चाँद ज्यों झील में झिलमिलाता
नजर नज़र आ रहा है सवेरे-सवेरे
 
ये आँखों की अनबूझ, अनमोल भाषा 
पलटकर ये फिर लौटने का दिलासा
ये बिंदी मिटी-सी, ये काजल पुँछा-सा
गजब ग़ज़ब ढा रहा है सवेरे-सवेरे
 
नजर नज़र अब भी सपनों में खोयी हुई है
हँसी ज्यों शहद में डुबोई हुई है
कोई तान होठों पे सोयी हुई है
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