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Kavita Kosh से
खुद अपनी ही आँखों से आँखें चुराता
उतर चाँद ज्यों झील में झिलमिलाता
ये आँखों की अनबूझ, अनमोल भाषा
पलटकर ये फिर लौटने का दिलासा
ये बिंदी मिटी-सी, ये काजल पुँछा-सा
हँसी ज्यों शहद में डुबोई हुई है
कोई तान होठों पे सोयी हुई है