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|रचनाकार=विनय प्रजापति 'नज़र'
}}
'''लेखन वर्ष[[category: २००५/२००७'''<br/><br/>जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँद<br/>गुलाबी बादलों के दुप्पटे ओढ़े<br/>महकता है तो<br/>तेरा एहसास मेरे बदन को<br/>रुआँ-रुआँ छूने लगता है<br/>एक अजीब मगर जानी-पहचानी ख़ुशबू<br/>मेरी साँसों में<br/>मेरी धड़कनों में घुलने लगती है,<br/>तब ऐसा लगता है<br/>तुम मेरे आस-पास हो, यहीं-कहीं…<br/><br/>नज़्म]]
वह पहली शाम<br/poem>जब उतरी हुई शाम के साए में<br'''लेखन वर्ष: २००५/>हम दोनों मिले थे<br/>पहली बार रू-ब-रू मिले थे<br/>तुमने मुझसे पूछा था<br/>तुम्हारे दिल में कोई ख़ुशी होगी?<br/>मैंने कहा था<br/>धड़कनों की जगह सन्नाटा है, सुकून है<br/>इस सबके आगे तो<br/>ख़ुशी बहुत छोटी चीज़ है…<br/><br/>२००७
मैं मन ही मन उलझा हुआ था<br/>जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँदसैकड़ों सवाल गुलाबी बादलों के दुप्पटे ओढ़ेमहकता है तोतेरा एहसास मेरे आगे<br/>बदन कोक़तार बनाये खड़े थे,<br/>रुआँ-रुआँ छूने लगता हैक्या तुमसे पूछूँ, क्या न पूछूँ<br/>एक अजीब मगर जानी-पहचानी ख़ुशबूकहीं तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा लग जाये<br/>साँसों मेंविसाल का यह लम्हा हिज्र न हो जाये<br/>मेरी धड़कनों में घुलने लगती है,एक यही डरतब ऐसा लगता हैतुम मेरे आस-पास हो, यहीं-सा था मुझको…<br/><br/>कहीं…
फिर तुम्हारी बात इक मोड़ मुड़ गयी<br/>वह पहली शामउस एक लम्हे जब उतरी हुई शाम के साए में ऐसा लगा<br/>मानो किसी ने दो ज़िन्दगियों को<br/>हम दोनों मिले थेएक ही तागे में बुन दिया हो,<br/>पहली बार रू-ब-रू मिले थेशाम अपनी रोशनी समेट रही थी,<br/>और तुमने मुझसे पूछा थातुम्हारे दिल में कोई ख़ुशी होगी?मैंने कहा जाओ अब<br/>थावर्ना वार्डन आ जायेगीधड़कनों की जगह सन्नाटा है,<br/>सुकून हैफिर किसी रोज़ मिल लेंगे<br/>यह कहते-कहते भी हम<br/>इस सबके आगे तोलगभग आधे घंटे और बैठे रहे…<br/><br/>ख़ुशी बहुत छोटी चीज़ है…
तुम्हारी चाय पिलाने ख़ाहिश<br/>मैं मन ही मन उलझा हुआ थाआज भी याद आती हैसैकड़ों सवाल मेरे आगेक़तार बनाये खड़े थे,<br/>उस दिन तो<br/>तुम्हारे होस्टल की मेस खुली नहीं थी<br/>फिर भी तुमने मुझसे पूछा थाक्या तुमसे पूछूँ,<br/>क्या न पूछूँउसके बाद न हम बाहर कहीं मिले<br/>तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा लग जायेऔर विसाल का यह लम्हा हिज्र कॉलेज में ही<br/>हो जायेतुम्हारा कॉलेज में यह आख़िरी साल एक यही डर-सा था,<br/>शायद बाहम बहाने कम पड़ गये थे<br/>या तुम्हारी मम्मी ने<br/>मेरी वो चिट्ठियाँ, वो कार्डस् देख लिए थे…<br/><br/>मुझको…
फिर तुम्हारी बात इक मोड़ मुड़ गयीउस एक लम्हे में ऐसा लगामानो किसी ने दो ज़िन्दगियों कोएक ही तागे में बुन दिया हो,शाम अपनी रोशनी समेट रही थी,और तुमने कहा जाओ अबवर्ना वार्डन आ जायेगी,फिर किसी रोज़ मिल लेंगेयह कहते-कहते भी हमलगभग आधे घंटे और बैठे रहे… तुम्हारी चाय पिलाने ख़ाहिशआज भी याद आती है,उस दिन तोतुम्हारे होस्टल की मेस खुली नहीं थीफिर भी तुमने मुझसे पूछा था,उसके बाद न हम बाहर कहीं मिलेऔर न कॉलेज में हीतुम्हारा कॉलेज में यह आख़िरी साल था,शायद बाहम बहाने कम पड़ गये थेया तुम्हारी मम्मी नेमेरी वो चिट्ठियाँ, वो कार्डस् देख लिए थे… मैं तुम्हारे कॉलेज अब भी जाता हूँ<br/>वहाँ मेरा वही पुराना दोस्त रहता है<br/>तुम्हारे बारे में हर बार पूछता है<br/>और मैं हर बार एक नया बहाना बना देता हूँ उससे<br/>इस बार मिलना मुझसे<br/>तो इक मुकम्मल मुलाक़ात मिलना<br/>यह आधी-अधूरी मुलाक़ातें<br/>नहीं तो सीने के दर्द को और हवा देती हैं…<br/><br/poem>