भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
तुझ से खेली हैं वह मह्बूब हवाएं महबूब हवाएँ जिन में
उसके मलबूस की अफ़सुरदा अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंटहोंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई -खोई साहिर आंखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास --हिर्मां के दुख -दर्द के म’आनि सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मन्डलाते मंडराते हुए आते हैं
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बह्ता है
आग -सी सीने में रह -रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है
Mover, Uploader
752
edits