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निकले है जी उसी के लिए, कायनात का
बिखरे है हैं जुल्‍फ, उस रूख-ए-आलम फरोज पर
वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का
उसके फरोग-ए-हुस्‍न से, झमके है सब में नूर
शम्शम्म-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
क्‍या मीर तुझ को नाम: सियाही की फिक्र है
खत्‍म-ए-रूसुल सा शख्‍स है, जामिन नजात का
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