भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोहरा,शहर और हम / केशव

9 bytes removed, 10:45, 22 अगस्त 2009
पद्चाप से
चौंककर
लिपटता ह्उआहुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
सफेद सफ़ेद खरगोश की तरह
रह गये गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में मुँदा मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
ऊँघता ऊंघता हुआ
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
न मैं
न तुम
रह गये गए हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
सोये सोए न जागते</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,324
edits