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Kavita Kosh से
पद्चाप से
चौंककर
लिपटता ह्उआहुआ
गिर्द
ठहरा हुआ
चिंहुककर
झाड़ियाँ फुदकते
रह गये गए
एक दूसरे पर झुके
सोये हुए-से
चलते
तुम और मैं
या कोहरे में मुँदा मुंदा
शहर
दूर
दूर कहीं
किसी सपने में
बिना पाँव चलता
न मैं
न तुम
रह गये गए हम
केवल हम
केवल हम
न रुके हुए न बीतते हुए
न सोये सोए न जागते</poem>