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चलते-चलते / कविता वाचक्नवी

87 bytes added, 09:14, 17 दिसम्बर 2009
सो गया।
:::तहखाने से उठकर :::: दो पाँव ::: घूमते हैं- ::: गली ::: बस्ती ::: बाज़ार ::: अटारी ::: चौबारा ::: दालान ::: चबूतरा ::: चौपाल ::: सड़क ::: कमरे ::: पहाड़ ::: हाट ::: जंगल। ::: भटकते हैं- ::: हरियाली ::: पानी ::: फूल ::: चहल-पहल ::: विश्रांति ::::: जाने क्या-क्या खोजते।
दो पावों के ऊपर
बाहर नहीं आ सकते।
::: बस ::: दो यायावरी पाँव ::: भटकते हैं इसीलिए ::: अंधेरे में ::: अकेले।
</poem>