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आग है शह्र की हवा जैसे
शब <ref>रात्रि</ref> सुलगती है दोपहर की तरहचाँद ,सूरज से जल-बुझा जैसे
मुद्दतों बाद भी ये आलम<ref>दशा</ref> है
इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम<ref>वंचित</ref>
मैं शरीक़े-सफ़र <ref> यात्रा का साथी</ref> न था जैसे
अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल<ref>गन्तव्य</ref>
साथ चलता हो रास्ता जैसे
इत्तिफ़ाक़न<ref>सहसा, अकस्मात् </ref> भी ज़िंदगी में ‘फ़राज़’
दोस्त मिलते नहीं ‘ज़िया’ <ref>प्रकाश(‘फ़राज़’ ने अपने मित्र जियाउद्दीन ‘ज़िया’ के किए संकेत किया है)</ref> जैसे
</poem>
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