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             - दीपा जोशी
 
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by vikrant saroha
 
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रणबीच चौकड़ी भर-भर कर
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चेतक बन गया निराला था
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पड़ गया हवा का पाला था ।
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गिरता न कभी चेतक तन पर
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राणाप्रताप का कोड़ा था
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वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर
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वह आसमान का घोड़ा था ।
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बढते नद सा वह लहर गया
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बिकराल बज्रमय बादल सा
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अरि की सेना पर घहर गया ।
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भाला गिर गया गिरा निसंग
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रचयिता ः श्यामनारायण् पाण्डेय,
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अनुनाद ने भेजा

19:43, 11 अगस्त 2006 का अवतरण

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किससे माँगें अपनी पहचान

हीय में उपजी, पलकों में पली, नक्षत्र सी आँखों के अम्बर में सजी, पल‍ ‍दो पल पलक दोलों में झूल, कपोलों में गई जो ढुलक, मूक, परिचयहीन वेदना नादान, किससे माँगे अपनी पहचान।

नभ से बिछुड़ी, धरा पर आ गिरी, अनजान डगर पर जो निकली, पल दो पल पुष्प दल पर सजी, अनिल के चल पंखों के साथ रज में जा मिली, निस्तेज, प्राणहीन ओस की बूँद नादान, किससे माँगे अपनी पहचान।

सागर का प्रणय लास, बेसुध वापिका लगी करने नभ से बात, पल दो पल का वीचि विलास, शमित शर ने तोड़ा तभी प्रमाद, मौन, अस्तित्वहीन लहर नादान, किससे माँगे अपनी पहचान

सृष्टि ! कहो कैसा यह विधान देकर एक ही आदि अंत की साँस तुच्छ किए जो नादान किससे माँगे अपनी पहचान।

           - दीपा जोशी

by vikrant saroha



रणबीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था राणाप्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था ।

गिरता न कभी चेतक तन पर राणाप्रताप का कोड़ा था वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर वह आसमान का घोड़ा था ।

बढते नद सा वह लहर गया फिर गया गया फिर ठहर गया बिकराल बज्रमय बादल सा अरि की सेना पर घहर गया ।

भाला गिर गया गिरा निसंग बैरी समाज रह गया दंग घोड़े का डेख ऐसा रंग


रचयिता ः श्यामनारायण् पाण्डेय,

अनुनाद ने भेजा