"ढूह की ओट बैठे / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:01, 3 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
ढूह की ओट बैठे
बूढ़े से मैंने कहा :
मुझे मोती चाहिए ।
उसने इशारा किया :
पानी में कूदो !
मैंने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या ?
उस ने एक मूँठ बालू उठा मेरी ओर कर दी ।
मैंने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती ?
उस ने एक कंकड़ उठाया और
अनमने भाव से मुझे दे पारा ।
मैंने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया
और कहा : यही क्या मोती है-
आप का ?
धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ,
मुड़ा वह मेरी ओर ।
सागर-सी उसकी आँखें थीं
सदियों की रेती पर
इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी
नैन-कोरों की झुर्रियाँ ।
बोला वह :
(कैसी एक खोई हुई हवा उन
बालूओं के ढूहों में से, घासों में से
सर्पिल-सी फिसली चली गई)
हाँ :
या कि नहीं क्यों ?
मिट्टी के भीतर
पत्थर था
पत्थर के भीतर
पानी था
पानी के भीतर
मेंढक था
मेंढक के भीतर
अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था,
लहू की धार थी यानी पानी था,
श्वास था यानी हवा थी,
जीव था-यानी मेंढक था ।
मोती जो चाहते हो
उस की पहचान अगर यह नही
तो और क्या है ?