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‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,
 
 
यहाँ यह मजा ।
 
 
मुँहदेखी, यदि न करो बात
 
 
तो मिले सजा ।
 
 
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –
 
 
के लिए जगह ।
 
 
 
 
डरा नहीं, आये तूफान,
 
 
उमस क्या करुँ ?
 
 
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,
 
 
घुटूँ औ’ मरूँ
 
 
चर्चाएँ नित अभाव की –
 
 
शाम औ’ सुबह।
 
 
 
 
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,
 
 
और बेबसी ।
 
 
अपनी सीमाओं का बोध
 
 
खोखली हँसी
 
 
झिड़क दिया बेवा माँ को
 
 
उफ्, बिलावजह ।
 
 
 
  
 
'''पल्लू की कोर दाब दाँत के तले'''  
 
'''पल्लू की कोर दाब दाँत के तले'''  
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पल्लू की कोर दाब दाँत के तले
 
 
कनखी ने किये बहुत वायदे भले ।
 
 
 
 
कंगना की खनक
 
 
पड़ी हाथ हथकड़ी ।
 
 
पाँवों में रिमझिम की बेडियाँ पड़ी ।
 
 
 
 
सन्नाटे में बैरी बोल ये खले,
 
 
हर आहट पहरु बन गीत मन छले ।
 
 
 
 
नाजों में पले छैल सलोने पिया,
 
 
यूँ न हो अधीर,
 
 
तनिक धीर धर पिया ।
 
 
 
 
बँसवारी झुरमुट में साँझ दिन ढले,
 
 
आऊँगी मिलने में पिय दिया जले ।
 
  
  

09:50, 27 अगस्त 2006 का अवतरण

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पल्लू की कोर दाब दाँत के तले




एक चाय की चुस्की


एक चाय की चुस्की

एक कहकहा

अपना तो इतना सामान ही रहा ।


चुभन और दंशन

पैने यथार्थ के

पग-पग पर घेर रहे

प्रेत स्वार्थ के ।

भीतर ही भीतर

मैं बहुत ही दहा

किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।


एक अदद गंध

एक टेक गीत की

बतरस भीगी संध्या

बातचीत की ।

इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा

छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।


एक कसम जीने की

ढेर उलझने

दोनों गर नहीं रहे

बात क्या बने ।

देखता रहा सब कुछ सामने ढहा

मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।


टहनी पर फूल जब खिला



टहनी पर फूल जब खिला

हमसे देखा नहीं गया ।


एक फूल निवेदित किया

गुलदस्ते के हिसाब में

पुस्तक में एक रख दिया

एक पत्र के जवाब में ।

शोख रंग उठे झिलमिला

हमसे देखा नहीं गया ।

प्रतिमा को

औ समाधि को

छिन भर विश्वास के लिये

एक फूल जूड़े को भी

गुनगुनी उसांस के लिये ।

आलिगुंजन गंध सिलसिला

हमसे देखा नहीं गया ।


एक फूल विसर्जित हुआ

मिथ्या सौंदर्य-बोध को

अचकन की शान के लिये

युग के कापुरुष क्रोध को

व्यंग टीस उठी तिलमिला ।

हमसे देखा नहीं गया ।


जयप्रकाश मानस