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"जाने की प्रक्रि‍या / नरेश चंद्रकर" के अवतरणों में अंतर

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20:43, 10 मार्च 2011 के समय का अवतरण

चुपचाप कैसे चली गई
चौमासे की बरसातें

यह पता भी न चला

बारि‍श की फुहारें देखकर
यह अनुमान कठि‍न था

कि ऋतांत की बारि‍श हो रही है

यदि‍ पहले ज्ञात होता
इसके बाद नहीं होगी वर्ष-भर बारिश
रोमांचि‍त रहता मन

चुपचाप करवट लेगा मौसम
इसका संकेत नहीं था
मौसम वि‍भाग के पास भी

बादलों की गर्जना
बारि‍श में भीगना
सड़कों पर जल-भराव के दृश्य
सीलन की गंध

गए सब चुपचाप

प्रकृति‍ को देखकर ही नहीं

जीवन पर भी
ठीक बैठता है यह वाक्य

गए सब चुपचाप !!