"सुझाई गयी कविताएं" के अवतरणों में अंतर
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+ | प्रेम रंजन अनिमेष की कुछ कविताएँ | ||
+ | |||
+ | मान<br><br> | ||
+ | मुसकुराता हुआ वह<br> | ||
+ | बढ़ता मेरी ओर<br> | ||
+ | बातें करने लगता आत्मीयता से<br><br> | ||
+ | |||
+ | उसकी मुसकान<br> | ||
+ | और ऑंखों की चमक से झलकता<br> | ||
+ | वह मुझे अच्छी तरह जानता<br><br> | ||
+ | |||
+ | पहले कहीं मिला होगा<br> | ||
+ | हुआ होगा परिचय<br> | ||
+ | पर इस समय ध्यान नहीं आ रहा<br><br> | ||
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+ | और कहिये कैसे हैं<br> | ||
+ | क्या हालचाल है पूछता हूँ<br> | ||
+ | सब कुशल मंगल तो है<br> | ||
+ | घर में ठीक हैं सब लोग<br> | ||
+ | आजकल कहाँ हैं ...<br><br> | ||
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+ | इसी तरह के सहज सुरक्षित सवाल<br> | ||
+ | कि वह जान न पाए<br><br> | ||
+ | अभी मैं उसे नहीं जानता<br><br> | ||
+ | |||
+ | बातें करता<br> | ||
+ | सोचता जाता ज़ाहिर किये बगैर<br> | ||
+ | आखिर कब कहाँ हुई थी भेंट<br> | ||
+ | कैसे किधर से वह जुड़ता है मुझसे<br><br> | ||
+ | |||
+ | सुनता कहता<br> | ||
+ | बड़े सँभाल से<br> | ||
+ | कि पकड़ा न जाऊँ<br> | ||
+ | और प्रतीक्षा करता<br> | ||
+ | बातों ही बातों में<br> | ||
+ | कोई सिरा मिले<br> | ||
+ | जिससे पहचान खुले<br><br> | ||
+ | |||
+ | माफ करिये भूल रहा आपका नाम ...<br> | ||
+ | सीधे सीधे उसकी मदद ले सकता<br><br> | ||
+ | |||
+ | पर डर है उसके आहत होने का<br> | ||
+ | इतनी भली तरह वह मुझे जानता है<br> | ||
+ | और मैं उसका नाम तक नहीं ...<br><br> | ||
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+ | अभी इतना भी<br> | ||
+ | बड़ा नहीं हुआ<br> | ||
+ | कि न हो इतना ख़याल<br> | ||
+ | कोई मिले और आगे बढ़ जाऊँ कतरा कर<br> | ||
+ | देख कर मुसकुरा कर हाथ हिला कर<br> | ||
+ | निकल जाऊँ उसकी बातों के बीच से<br> | ||
+ | रास्ता बना कर<br><br> | ||
+ | |||
+ | कोई है जिसे याद हूँ<br> | ||
+ | लेकिन मैं भूल गया हूँ<br><br> | ||
+ | |||
+ | कुछ हैं<br> | ||
+ | जिन्हें मैं नहीं जानता<br> | ||
+ | पर वे मुझे<br> | ||
+ | जानते हैं<br> | ||
+ | ऐसे कितने हैं ...?<br><br> | ||
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+ | एक पल के लिए<br> | ||
+ | जाने कहाँ से<br> | ||
+ | तुष्टि सी जागती<br><br> | ||
+ | |||
+ | जबकि संताप होना चाहिए था<br> | ||
+ | अफसोस अपनी लाचारी पर<br> | ||
+ | |||
+ | अब तक पहचान नहीं सका<br> | ||
+ | हालाँकि वह इतनी देर रहा<br> | ||
+ | इतना मौका दिया<br><br> | ||
+ | |||
+ | चलूँ ...नहीं तो छूट जायेगी गाड़ी<br> | ||
+ | अब वह जा रहा<br> | ||
+ | अब भी नहीं मिला उसका नाम<br><br> | ||
+ | |||
+ | शायद वह उतना सफल नहीं जीवन में<br><br> | ||
+ | |||
+ | सफलता का अभी पैमाना यही<br> | ||
+ | कितने तुम्हें जानने वाले<br> | ||
+ | जिन्हें तुम नहीं पहचानते<br><br> | ||
+ | |||
+ | यह एक ऐसा दौर<br> | ||
+ | जिसमें स्मृति और पहचान<br> | ||
+ | न होने का अभिमान ...!<br><br> | ||
+ | |||
+ | ****************** | ||
+ | |||
+ | छोड़ना<br><br> | ||
+ | |||
+ | अंधेरे में ही टटोलीं उसने चप्पलें<br> | ||
+ | हाथ में ली औचक बत्ती<br> | ||
+ | और सँकरी सीढ़ियाँ दिखाते<br> | ||
+ | उतरा मुझे छोड़ने<br> | ||
+ | छोड़ खुले दरवाजे<br><br> | ||
+ | |||
+ | मेरे बहुत आगे<br> | ||
+ | अपने बहुत पीछे<br> | ||
+ | तक की बातें<br> | ||
+ | करता चलता गया<br> | ||
+ | संकोच से भरा सोचता रहा मैं<br> | ||
+ | जहाँ तक जायेगा छोड़ने<br> | ||
+ | वहाँ से लौटना होगा उसे अकेले<br><br> | ||
+ | आधी राह तक आया वह<br> | ||
+ | इससे आगे जाना<br> | ||
+ | संदेह भरता<br> | ||
+ | कि होगा कहीं कोई हित जरूर उसका<br> | ||
+ | अपना लौटना रखा<br> | ||
+ | जितनी रह गयी थी मेरी राह<br> | ||
+ | उससे छूट कर<br> | ||
+ | |||
+ | इससे बढ़कर<br> | ||
+ | क्या होगा निभाव<br><br> | ||
+ | |||
+ | घूँघट की ओट तक<br> | ||
+ | छोड़ता<br> | ||
+ | कोई चौखट तक<br> | ||
+ | गली नगर सीवान पलकों के अनंत अपार<br> | ||
+ | पास के तट तो कोई मरघट तक<br> | ||
+ | रहता देता साथ<br><br> | ||
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+ | उतनी बड़ी ज़िंदगी<br> | ||
+ | कोई अपना देखता जितनी देर<br> | ||
+ | जाते हुए किसी को अपने आगे<br> | ||
+ | उतना ही बड़ा आदमी<br> | ||
+ | छोड़ता जो किसी को जितनी दूर<br> | ||
+ | और बस्ती उतनी ही बड़ी<br> | ||
+ | जहाँ तक लोग लोगों को<br> | ||
+ | लाने छोड़ने जाते<br><br> | ||
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+ | कौन मगर इस भीड़ में<br> | ||
+ | मिलता किसी से<br> | ||
+ | अब कहाँ कोई छोड़ता किसी को<br><br> | ||
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+ | जबकि छोड़ना भी शामिल है यात्राओं में<br><br> | ||
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+ | गौर करें तो हम सब की यात्रायें<br> | ||
+ | छोड़ने की<br> | ||
+ | यात्रायें हैं<br> | ||
+ | न छोड़ो तब भी<br> | ||
+ | एक एक कर सब छूटते जाते<br> | ||
+ | और कहीं पहुँच कर हम पाते<br> | ||
+ | कि अपना आप ही नहीं साथ<br> | ||
+ | वह भी कहीं<br> | ||
+ | छूट गया ...<br><br> | ||
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+ | तब पता चलता<br> | ||
+ | कई बार तो तब भी नहीं<br> | ||
+ | कि यात्रा अपनी<br> | ||
+ | दरअसल यात्रा अपने को छोड़ने की<br><br> | ||
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+ | छोड़ें अगर किसी को<br> | ||
+ | तो इस तरह<br> | ||
+ | जैसे जाते हुए बहुत अपने को<br> | ||
+ | छोड़ते हैं<br> | ||
+ | प्यार से<br> | ||
+ | साथ जाकर<br> | ||
+ | देर तक<br> | ||
+ | और दूर तक ...<br><br> | ||
+ | |||
+ | ख़ैर छोड़ो<br> | ||
+ | अब जाने दो यह बात<br> | ||
+ | मैं तुम्हें और तुम मुझे<br> | ||
+ | इस ओस भींगे आधे चाँद की रात<br> | ||
+ | छोड़ते रहे तासहर<br><br> | ||
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+ | जब तक एक न हो जायें<br> | ||
+ | अपने ऑंगन अपने घर<br><br> | ||
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+ | *************************** | ||
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स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br> | स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br> | ||
सो गये हैं अब सारे तारे<br> | सो गये हैं अब सारे तारे<br> |
17:27, 15 अक्टूबर 2007 का अवतरण
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प्रेम रंजन अनिमेष की कुछ कविताएँ
मान
मुसकुराता हुआ वह
बढ़ता मेरी ओर
बातें करने लगता आत्मीयता से
उसकी मुसकान
और ऑंखों की चमक से झलकता
वह मुझे अच्छी तरह जानता
पहले कहीं मिला होगा
हुआ होगा परिचय
पर इस समय ध्यान नहीं आ रहा
और कहिये कैसे हैं
क्या हालचाल है पूछता हूँ
सब कुशल मंगल तो है
घर में ठीक हैं सब लोग
आजकल कहाँ हैं ...
इसी तरह के सहज सुरक्षित सवाल
कि वह जान न पाए
अभी मैं उसे नहीं जानता
बातें करता
सोचता जाता ज़ाहिर किये बगैर
आखिर कब कहाँ हुई थी भेंट
कैसे किधर से वह जुड़ता है मुझसे
सुनता कहता
बड़े सँभाल से
कि पकड़ा न जाऊँ
और प्रतीक्षा करता
बातों ही बातों में
कोई सिरा मिले
जिससे पहचान खुले
माफ करिये भूल रहा आपका नाम ...
सीधे सीधे उसकी मदद ले सकता
पर डर है उसके आहत होने का
इतनी भली तरह वह मुझे जानता है
और मैं उसका नाम तक नहीं ...
अभी इतना भी
बड़ा नहीं हुआ
कि न हो इतना ख़याल
कोई मिले और आगे बढ़ जाऊँ कतरा कर
देख कर मुसकुरा कर हाथ हिला कर
निकल जाऊँ उसकी बातों के बीच से
रास्ता बना कर
कोई है जिसे याद हूँ
लेकिन मैं भूल गया हूँ
कुछ हैं
जिन्हें मैं नहीं जानता
पर वे मुझे
जानते हैं
ऐसे कितने हैं ...?
एक पल के लिए
जाने कहाँ से
तुष्टि सी जागती
जबकि संताप होना चाहिए था
अफसोस अपनी लाचारी पर
अब तक पहचान नहीं सका
हालाँकि वह इतनी देर रहा
इतना मौका दिया
चलूँ ...नहीं तो छूट जायेगी गाड़ी
अब वह जा रहा
अब भी नहीं मिला उसका नाम
शायद वह उतना सफल नहीं जीवन में
सफलता का अभी पैमाना यही
कितने तुम्हें जानने वाले
जिन्हें तुम नहीं पहचानते
यह एक ऐसा दौर
जिसमें स्मृति और पहचान
न होने का अभिमान ...!
छोड़ना
अंधेरे में ही टटोलीं उसने चप्पलें
हाथ में ली औचक बत्ती
और सँकरी सीढ़ियाँ दिखाते
उतरा मुझे छोड़ने
छोड़ खुले दरवाजे
मेरे बहुत आगे
अपने बहुत पीछे
तक की बातें
करता चलता गया
संकोच से भरा सोचता रहा मैं
जहाँ तक जायेगा छोड़ने
वहाँ से लौटना होगा उसे अकेले
आधी राह तक आया वह
इससे आगे जाना
संदेह भरता
कि होगा कहीं कोई हित जरूर उसका
अपना लौटना रखा
जितनी रह गयी थी मेरी राह
उससे छूट कर
इससे बढ़कर
क्या होगा निभाव
घूँघट की ओट तक
छोड़ता
कोई चौखट तक
गली नगर सीवान पलकों के अनंत अपार
पास के तट तो कोई मरघट तक
रहता देता साथ
उतनी बड़ी ज़िंदगी
कोई अपना देखता जितनी देर
जाते हुए किसी को अपने आगे
उतना ही बड़ा आदमी
छोड़ता जो किसी को जितनी दूर
और बस्ती उतनी ही बड़ी
जहाँ तक लोग लोगों को
लाने छोड़ने जाते
कौन मगर इस भीड़ में
मिलता किसी से
अब कहाँ कोई छोड़ता किसी को
जबकि छोड़ना भी शामिल है यात्राओं में
गौर करें तो हम सब की यात्रायें
छोड़ने की
यात्रायें हैं
न छोड़ो तब भी
एक एक कर सब छूटते जाते
और कहीं पहुँच कर हम पाते
कि अपना आप ही नहीं साथ
वह भी कहीं
छूट गया ...
तब पता चलता
कई बार तो तब भी नहीं
कि यात्रा अपनी
दरअसल यात्रा अपने को छोड़ने की
छोड़ें अगर किसी को
तो इस तरह
जैसे जाते हुए बहुत अपने को
छोड़ते हैं
प्यार से
साथ जाकर
देर तक
और दूर तक ...
ख़ैर छोड़ो
अब जाने दो यह बात
मैं तुम्हें और तुम मुझे
इस ओस भींगे आधे चाँद की रात
छोड़ते रहे तासहर
जब तक एक न हो जायें
अपने ऑंगन अपने घर
स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.
मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.
कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.
मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.
फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.
आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//
--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
- - - -- --- --- --- ---- ----- ------ ---- ---
कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
छिप के कारोबार करना चाहता है
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
आसमानों के तले रहता है लेकिन
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
रेत का व्यौपार करना चाहता है ।
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
जाने क्या तैयार करना चाहता है ।
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
घूम कर इक वार करना चाहता है ।
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
सरहदों को पार करना चाहता है ।
प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।