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"मज़मून / वाज़दा ख़ान" के अवतरणों में अंतर

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20:55, 21 मार्च 2011 के समय का अवतरण

हृदय की गढ़न
हृदय की पीर
हृदय में ही रचती रहती है
तमाम कविताएँ
जिसका मज़मून अकसर
जुड़ा रहता है तुम्हारे वजूद से

अन्तर्मन से जब आती हैं वे
सतह पर
तो नाम तुम्हारा
होता है ग़ायब

यह कोई अजूबा नहीं
यह तो एक ज़रिया बनता
मथती हुई बेचैनी को
परछाइयों में ढालने का ।