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"मज़मून / वाज़दा ख़ान" के अवतरणों में अंतर
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हृदय की गढ़न
हृदय की पीर
हृदय में ही रचती रहती है
तमाम कविताएँ
जिसका मज़मून अकसर
जुड़ा रहता है तुम्हारे वजूद से
अन्तर्मन से जब आती हैं वे
सतह पर
तो नाम तुम्हारा
होता है ग़ायब
यह कोई अजूबा नहीं
यह तो एक ज़रिया बनता
मथती हुई बेचैनी को
परछाइयों में ढालने का ।