"वृन्द के दोहे / भाग १" के अवतरणों में अंतर
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+ | जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5<br><br> | ||
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+ | तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7<br><br> | ||
− | + | सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।<br> | |
+ | पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8<br><br> | ||
+ | अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।<br> | ||
+ | ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9<br><br> | ||
− | + | लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।<br> | |
− | + | चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 10<br><br> | |
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23:08, 17 जून 2007 का अवतरण
नीति के दोहे
रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1
अपनी पहुँ विचार विचारिकै, करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2
कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 3
विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 4
बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5
मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7
सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8
अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9
लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 10