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"वृन्द के दोहे / भाग १" के अवतरणों में अंतर

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कैसे  निबहै निबल जन , करि सबलन सों गैर ।<br>
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जैसे बस सागर विषै  , करत मगर सों बैर॥3<br>
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विद्या धन उद्यम बिना ,कहो जू पावै कौन ।<br>
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बनती देख बनाइये ,परन न दीजै खोट ।<br>
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सबै सहायक सबल के ,कोउ न निबल सहाय ।<br>
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लालच हू ऐसी भली ,जासों पूरे आस ।<br>
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चाटेहूँ कहुँ ओस के , मिटत काहु की प्यास ॥ 10<br>
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23:08, 17 जून 2007 का अवतरण

नीति के दोहे

रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 1

अपनी पहुँ विचार विचारिकै, करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 2

कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 3

विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 4

बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 5

मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 7

सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 8

अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 9

लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 10