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"गारुड़ी कृष्ण / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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सखियनि मिलि राधा घर लाईं ।
 
सखियनि मिलि राधा घर लाईं ।
  

19:55, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

सखियनि मिलि राधा घर लाईं ।

देखहु महरि सुता अपनी कौं, कहूँ इहिं कारैं खाई ॥

हम आगैं आवति, यह पाछैं धरनि परी भहराई ।

सिर तैं गई दोहनी ढरिकै, आपु रही मुरझाई ॥

स्याम-भुअंग डस्यौ हम देखत, ल्यावहु गुनी बुलाई ।

रोवति जननि कंठ लपटानी, सूर स्याम गुन राई ॥1॥



नंद-सुवन गारुड़ी बुलावहु ।

कह्यौ हमारौ सुवत न कोऊ, तुरत जाहु, लै आवहु ॥

ऐसी गुनी नहिं त्रिभुवन कहूँ, हम जानतिं हैं नीकैं ।

आइ जाइ तौ तुरत जियावहि, नैंकु छुवत उठै जी कै ॥

देखौ धौं यह बात हमारी, एकहि मंत्र जिवावै ।

नंद महर कौ सुत सूरज जौ, कैसेहुँ ह्याँ लौं आवै ॥2॥



महरि, गारुड़ी कुँवर कन्हाई ।

एक बिटिनियाँ कारैं खाई, ताकौं स्याम तुरतहीं ज्याई ॥

बोलि लेहु अपने ढौटा कौं, तुम कहि कै देउ नैंकु पठाई ।

कुँवरि राधिका प्राप्त खरिक गई , तहाँ कहूँ-धौं कारैं खाई ॥

यह सुनि महरि मनहिं मुसुक्यानी, अबहिं रही मेरैं गृह आई ।

सूर स्याम राधहिं कछु कारन, जसुमति समुझि रही अरगाई ॥3॥



तब हरि कौं टेरति नँदरानी ।

भली भई सुत भयौ गारुड़ी, आजु सुनी यह बानी ॥

जननी-टेर सुनत हरि आए, कहा कहति री मैया ?

कीरति महरि बुलावन आई, जाहु न कुँवर कन्हैया ॥

कहूँ राधिका कारैं खायौ, जाहु न आवौ झारि ।

जंत्र-मंत्र कछु जानत हौ तुम, सूर स्याम बनवारि ॥4॥



हरि गारुड़ी तहाँ तब आए ।

यह बानि वृषभानुसुता सुनि मन-मन हरष बढ़ाए ॥

धन्य-धन्य आपुन कौं कीन्हौं अतिहिं गई मुरझाइ ।

तनु पुलकित रोमांच प्रगट भए आनँद-अस्रु बहाइ ॥

विह्वल देखि जननि भई व्याकुल अंग विष गयौ समाइ ।

सूर स्याम-प्यारी दोउ जानत अंतरगत कौ भाइ ॥5॥



रोवति महरि फिरति बिततानी ।

बार-बार लै कंठ लगावति, अतिहिं सिथिल भई पानी ।

नंद सुवन कैं पाइ परी लै, दौरि महरि तब आइ ।

व्याकुल भई लाड़िली मेरी, मोहन देहु जिवाइ ॥

कछु पढ़ि पढ़ि कर, अंग परस करि, बिष अपनौ लियौ झारि ।

सूरदास-प्रभु बड़े गारुड़ी, सिर पर गाड़ू डारि ॥6॥



लोचन दए कुँवरि उधारि ।

कुँवर देख्यौ नंद कौ तब सकुची अंग सम्हारि ॥

बात बूझति जननि सौं री कहा है यह आज ।

मरत तैं तू बचो प्यारी करति है कह लाज ॥

तब कहति तोहिं कारैं खाई कछु न रहि सुधि गात ।

सूर प्रभु तोहिं ज्याइ लीन्हीं कहौ कुँवरि सौं मात ॥7॥


बड़ौं मंत्र कियौ कुँवर कन्हाई ।

बार-बार लै कंठ लगायौ; मुख चूम्यौ दियौ घरहिं पठाई ॥

धन्य कोषि वह महरि जसोमति, जहाँ अवतर्‌यौ यह सुत आई ।

ऐसौ चरित तुरतहीं कीन्हौं, कुँवरि हमारी मरी जिवाई ॥

मनहीं मन अनुमान कियौं यह, बिधिना जोरी भली बणाई ।

सूरदास प्रभु बड़े गारुड़ी, ब्रज घर-घर यह घैरु चलाई ॥8॥