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"आलिंगन का स्वाद / समीर बरन नन्दी" के अवतरणों में अंतर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीर बरन नन्दी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> जंगली डगर पर …) |
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01:30, 17 मई 2011 के समय का अवतरण
जंगली डगर पर चल रहा हूँ अकेला
फिर भी अकेला नहीं हूँ ।
हे जीवन... हे जीवन... वादा करो
नदी पर आकर इस जंगल के आगोश में
रोज़ कुछ समय बिताओगे ।
अपने आप से मिलकर
यहीं सेमल के बीज की तरह
कुलाचे मारता है मन-यौवन ।
कैसे छोड़ सकता हूँ
इस एकांत में --
इस आलिंगन का स्वाद ।