भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आग और सपना / नील कमल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नील कमल |संग्रह=हाथ सुंदर लगते हैं / नील कमल }} {{KKCatKa…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:31, 5 जून 2011 के समय का अवतरण
आग और सपनों की
नहीं होती कोई जात
आग जंगल की तरह
फैल सकती है मय समंदर
सपनों की बारात
उस आख़िरी बचे आदमी की
आँख के दरवाज़े सजती है
और पसर जाती है
क़ातिल की छुरी से निकल
फूलों की मुस्कान में
आग और सपनों का
एक रिश्ता है
षोडसी की आँखो में
बचे रहते हैं सपने
जैसे बोरसी की राख में
बची रहती है आग
आग और सपनों की
नहीं होती कोई जात
बोरसी की आग घर-घर
जलाती है चूल्हे
षोडसी की आँखों में
जीवित रहती है आदमी होने की
पहली और आख़िरी पहचान ।