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01:31, 5 जून 2011 के समय का अवतरण

आग और सपनों की
नहीं होती कोई जात

आग जंगल की तरह
फैल सकती है मय समंदर

सपनों की बारात
उस आख़िरी बचे आदमी की
आँख के दरवाज़े सजती है
और पसर जाती है
क़ातिल की छुरी से निकल
फूलों की मुस्कान में

आग और सपनों का
एक रिश्ता है

षोडसी की आँखो में
बचे रहते हैं सपने
जैसे बोरसी की राख में
बची रहती है आग

आग और सपनों की
नहीं होती कोई जात

बोरसी की आग घर-घर
जलाती है चूल्हे

षोडसी की आँखों में
जीवित रहती है आदमी होने की
पहली और आख़िरी पहचान ।