"आशिक़ों की भंग-1 / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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00:48, 11 जुलाई 2011 का अवतरण
दुनिया के अमीरों में याँ किसका रहा डंका ।
बरबाद हुए लश्कर, फ़ौजों का थका डंका ।
आशिक़ तो यह समझे हैं, अब दिल में बना डंका ।
जो भंग पिएँ उनका बजता है सदा डंका ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।१।।
उल्फ़त के जमर्रुद<ref>पन्ना, हरा रत्न</ref> की, यह खेत की बूटी है ।
पत्तों की चमक उसके कमख़्वाब<ref>बहुमूल्य वस्त्र, एक प्रकार का रेशमी वस्त्र</ref> की बूटी है ।
मुँह जिसके लगी उससे फिर काहे को छूटी है ।
यह तान टिकोरे<ref>नौबत की आवाज़</ref> की इस बात पे टूटी है ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।२।।
हर आन खड़ाके से, इस ढब का लगा रगड़ा ।
जो सुन के खड़क इसकी हो बंद सभी दगड़ा<ref>कच्ची सड़क</ref> ।
चक़्कान<ref>गाढ़ी घुटी हुई भंग</ref> चढ़ा गहरा, और बाँध हरा पगड़ा<ref>बड़ी पगड़ी</ref> ।
क्या सैर की ठहरेगी टुक छोड़ के यह झगड़ा ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।३।।
एक प्याले के पीते ही, हो जावेगा मतवाला ।
आँखों में तेरी आकर खिल जाएगा गुल लाला<ref>लाल रंग के प्रसिद्ध फूल</ref> ।
क्या क्या नज़र आवेगी हरियाली व हरियाला ।
आ मान कहा मेरा, ऐ शोख़<ref>चंचल</ref> नए लाला ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।४।।
हैं मस्त वही पूरे, जो कूंडी के अन्दर हैं ।
दिल उनके बड़े दरिया, जी उनके समुन्दर हैं ।
बैठे हैं सनम बुत हो, और झूमते मन्दिर हैं ।
कहते हैं यही हँस-हँस, आशिक़ जो कलन्दर<ref>मस्त और आज़ाद फ़कीर</ref> हैं ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।५।।
सब छोड़ नशा प्यारे, पीवे तू अगर सब्जी ।
कर जावे वही तेरी, ख़ातिर में असर सब्जी ।
हर बाग में हर जाँ<ref>हर जगह</ref> में, आ जावे नज़र सब्जी ।
तेरी भी ’नज़ीर’ अब तो सब्जी में है सर सब्जी ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।६।।