भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़मीन / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
  
तुम्हारी कविता में
+
मेरी कविताओं की ज़मीन
बहुत बार
+
उस आदमी के भीतर का धीरज है
हथेलियों के बीच…
+
छिन चुकी है
मरी तितलियों का रंग उतरता है
+
जिसके पावों की ज़मीन
बहुत बार
+
भुरभुरा-उर्वर किये है
घायल मोर का पंख
+
इस ज़मीन को
तुम्हारी कविता में रंग भरता है
+
हरियाते घावों की दुखन
ऊंचे आकाश में
+
इस ज़मीन का रंग
चिड़िया मासूम कोई जब
+
खून का रंग है
बाज़ के पंजों में समाती है
+
इस ज़मीन की गंध
शब्दों की बहादुरी
+
देह की गंध है
तुम्हारी कविता में भर जाती है
+
इस ज़मीन का दर्द
मेरी संवेदना
+
आदमी का दर्द है
जाने क्यों
+
कुछ नहीं होता जब
इन पन्नों पर जाती हुई
+
ज़मीन पर
शर्माती है।
+
तब दर्द की फसल होती है
 +
मैं इसी फसल को
 +
बार बार काटता हूँ
 +
बार बार बोता हूँ
 +
आदमी के रिश्ते को
 +
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
 +
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।
 +
 
 
</poem>
 
</poem>

20:43, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन
भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है
मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ
आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।