भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज्योति की धारा-सी उमड़ी है / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=गीत-रत्नावली / गुलाब खंड…)
 
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
पाये अंध दृष्टि ज्यों खोयी
 
पाये अंध दृष्टि ज्यों खोयी
 
लगता जैसे मेरी सोयी
 
लगता जैसे मेरी सोयी
आत्मा जाग पडी है  
+
                  आत्मा जाग पडी है  
 
 
 
 
 
दिखता ज्यों मंदाकिनि-तट पर
 
दिखता ज्यों मंदाकिनि-तट पर
 
मैं चन्दन घिसता, ले धनु-शर
 
मैं चन्दन घिसता, ले धनु-शर
 
राम-लखन हैं तिलक रहे कर  
 
राम-लखन हैं तिलक रहे कर  
आयी पुण्यघड़ी है  
+
                    आयी पुण्यघड़ी है  
 
 
 
 
 
अब तक रहा मोह-मद छाया  
 
अब तक रहा मोह-मद छाया  
 
तूने मुक्ति-मार्ग दिखलाया
 
तूने मुक्ति-मार्ग दिखलाया
 
जिस पर चले न जग की माया  
 
जिस पर चले न जग की माया  
अब वह धुन पकड़ी है  
+
                  अब वह धुन पकड़ी है  
  
 
ज्योति की धारा-सी उमड़ी है  
 
ज्योति की धारा-सी उमड़ी है  
 
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है
 
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है
 
<poem>
 
<poem>

04:54, 22 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


ज्योति की धारा-सी उमड़ी है
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है

मन झकझोर रहा है कोई
पाये अंध दृष्टि ज्यों खोयी
लगता जैसे मेरी सोयी
                   आत्मा जाग पडी है
 
दिखता ज्यों मंदाकिनि-तट पर
मैं चन्दन घिसता, ले धनु-शर
राम-लखन हैं तिलक रहे कर
                     आयी पुण्यघड़ी है
 
अब तक रहा मोह-मद छाया
तूने मुक्ति-मार्ग दिखलाया
जिस पर चले न जग की माया
                  अब वह धुन पकड़ी है

ज्योति की धारा-सी उमड़ी है
पत्नी नहीं, स्वयं सम्मुख तू वीणापाणि खड़ी है