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"स्नेह के प्रति / कीर्ति चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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15:10, 13 अगस्त 2011 के समय का अवतरण
ज़रा ढील दो, अपने को यों मत कसो
खुलकर रो लो और खुलकर हँसो
थोड़ी हल्की बनो, इसका भी कुछ अर्थ है
उलझन-अवसादों की गरिमा तो व्यर्थ है
दुनिया हर रोज़ ही कुछ न कुछ बढ़ती है
बात कुंठा से नहीं, गति से सुलझती है ।