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"हे शिव तुम्हे प्रणाम / मंजुला सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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12:38, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण

नमन तुम्हे शिव ! जिसकी महिमा
अपरम्पार , अम्बर सा जो
पारदर्शी है , गुण सब जिस में
सृष्टि सृजन के ,
पालन और भंग करने के
विश्व अनेकों ! काश भक्ति ,
तीव्र भक्ति मेरे जीवन की
मिल जाए उस से, उस शिव से ,
स्वामी सबका हो कर भी जो परे स्वयं से .

जो शाश्वत स्वामी है सबका ,
जो सारे भ्रम का है हर्ता,
जिसका सबसे उत्कृष्ट प्रेम, प्रकट है,
सब नामों में बढकर नाम .
"महादेव, " जो सबका धाम !

पावन आलिंगन में जिसके प्रेम बरसता ,
दर्शाता अपने अंतर में , कि शक्ति ये
क्षीण मात्र और परिवर्तनीय .

निहित जहाँ अंधड़ अतीत के ,
संस्कार उद्वेलित शक्ति
तीव्र ,जल जैसे उमढाता लहरें;
जिसमे 'मैं' 'तू'द्वन्द उपजता
बढ़ता ,पलता ;उसे नमन ,
शिव में स्थित ,शांति प्रगाढ़ !

जहाँ बोध जनक - जन्यों का ,
शुचि विचार ,असीमित रूप ,
समाहित होते सत्य में ;मिट जाता
बोध अन्तः -बाह्य का -
प्राण वायु हो जाती शांत -
पूजूँ मैं उस 'हर' को,हरता जो
मन की गतिविधियाँ .शिव का स्वागत !

हर क्लेश और तम का नाशक ,
अभ्रक ज्योति, श्वेत ,व सुन्दर
श्वेत कमल के खिलने जैसा ,
अट्टहास से ज्ञान बिखेरे ;
जो निरत रहे आत्मध्यान में ,
दर्शन देता ह्रदय कमल में ,
राजहंस जो शांत झील का
मेरे मन की , रक्षक मेरा ,नमन है उसे !

वह जो पूर्ण अमंगल हर्त्ता ,
निष्कलंक करता युग युग को ;
दक्ष सुता ने दिया जिसे कर ;
जो है श्वेत कमलिनी सा मधु ,
सुन्दर ; सदा रहे तत्पर जो
प्राण त्यागने परहित प्रतिपल ,दृष्टि
निहित दुर्बल दरिद्र पर ;कंठ नील है
विष धारण से ;
उसे है नमन !


स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित मूल अंग्रेज़ी रचना
Salutation to Shiva! whose glory
Is immeasurable, who resembles sky
In clearness, to whom are attributed
The phenomena of all creation,
The preservation and dissolution
Of the universe! May the devotion,
The burning devotion of this my life
Attach itself to Him, to Shiva, who,
While being Lord of all, transcends Himself.

In whom Lordship is ever established,
Who causes annihilation of delusion,
Whose most surpassing love, made manifest,
Has crowned Him with a name above all names,
The name of "Mahadeva", the Great God!
Whose warm embrace, of Love personified,
Displays, within man's heart, that all power
Is but a semblance and a passing show.

In which the tempest of the whole past blows,
Past Samskaras, stirring the energies
With violence, like water lashed to waves;
In which the dual consciousness of "I" and "Thou"
Plays on: I salute that mind unstable,
Centred in Shiva, the abode of calm!

Where the ideas of parent and produced,
Purified thoughts and endless varied forms,
Merge in the Real one; where the existence ends
Of such conceptions as "within", "without"--
The wind of modification being stilled--
That Hara I worship, the suppression
Of movements of the mind. Shiva I hail!

From whom all gloom and darkness have dispersed;
That radiant Light, white, beautiful
As bloom of lotus white is beautiful;
Whose laughter loud sheds knowledge luminous;
Who, by undivided meditation,
Is realised in the self-controlled heart:
May that Lordly Swan of the limpid lake
Of my mind, guard me, prostrate before Him!

Him, the Master-remover of evil,
Who wipes the dark stain of this Iron Age;
Whom Daksha's Daughter gave Her coveted hand;
Who, like the charming water-lily white,
Is beautiful; who is ready ever
To part with life for others' good, whose gaze
Is on the humble fixed; whose neck is blue
With the poison swallowed:
Him, we salute!