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"सद-परामर्श / बसन्तजीत सिंह हरचंद" के अवतरणों में अंतर

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मित्र ने मुझसे कहा, ----
"तपस्या करना बेकार है
अच्छे का पर्याय पुरस्कार है
बनिये की तुला के लिए लिख
पुरस्कार बन कर बिक
साहित्य में टिक ।

किसी सेठ की गोद में जा बैठ
और फिर ऐंठ
या फिर किसी
विचारधारा की झोली में गिर
हर्षों से घिर
किसी दल की
उच्च ध्वजा के नीचे खड़ा हो जा
नहीं तो बैठा रो, जा।

अथवा किसी
कुर्सी की शरण में जा , पूजाकर
नहीं ? नहीं तो अंधेरों में सड़- मर
मैं कहता हूँ समय न गंवा
पाँव जमा ।"

मैं चुप था
अन्धेरा घुप था ।।

(श्वेत निशा , १९९१)