भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बुत हो गया फिर / नंदकिशोर आचार्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<poem>
 
<poem>
पत्थर क्या नींद से भी
+
बगीचे के ठीक बीचोबीच
ज्यादा पारदर्शी होता है
+
था वह, फड़फड़ाता पंख
कि और भी साफ दिख जाता है
+
जिस पर था जो पाखी
उस में भी अपना सपना
+
अचानक उड़ गया
तुम जिसे उकेरने लगते हो-
+
शिल्पी जो ठहरे !
+
  
पर क्या होता है उन टुकड़ों का
+
अब कौन है साखी
जिन्हें तुम अपने उकेरने में
+
कि तब जिस ने खोले थे पंख
पत्थर से उतार देते हो ?
+
बगीचे के ठीक बीचोबीच वह
और उस मूरत का जो-जैसी भी हो
+
बुत हो गया फिर अब ?
तुम्हारी ही पहचान होती है
+
पत्थर की नहीं ?
+
  
उन में क्या सिसकता नहीं रहता होगा
+
(1976)
पत्थर का कोई
+
क्षत-विक्षत सपना अपना ?
+
हाँ, पत्थर तो उपकरण ठहरा !
+
उस का अपना क्या ?
+
सपना क्या ?
+
  
तो क्या वे
 
जिन का अपना नहीं होता कुछ
 
उपकरण हो जाते हैं
 
मूरत करने को किसी और का सपना !
 
 
(1976)
 
  
 
</Poem>
 
</Poem>

15:57, 1 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

बगीचे के ठीक बीचोबीच
था वह, फड़फड़ाता पंख
जिस पर था जो पाखी
अचानक उड़ गया

अब कौन है साखी
कि तब जिस ने खोले थे पंख
बगीचे के ठीक बीचोबीच वह
बुत हो गया फिर अब ?

(1976)