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"जीते जी हम क्यूँ, रोज मरते हैं / अनुपमा पाठक" के अवतरणों में अंतर

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13:24, 17 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण

ईश्वर की लीला
अपरम्पार है
जो बह रही है
कैसी अद्भुत धार है
चेहरे पर
मुस्कान लिए
जीवन जय करते हैं
हौसले की धूप खिली है
और सरिता की आँखों से
मोती झरते हैं!

आँखों से छलकता
असीम प्यार है
कैसी अनोखी
यह बयार है
अंगारों पर
पूर्ण कौशल के साथ
चरण धरते हैं
पीर से भरा हृदय है
और बादल औरों की
पीर हरते हैं!

पीड़ा के प्रवाह में
ईश-स्मरण साकार है
तटों को बांधे हुए
मझधार है
जीवन नौका खेते हुए
सुख-दुःख की
मार सहते हैं
बिखरते हुए तटों पे
लहर कितनी ही
कथा कहते हैं!

इन कथाओं में
अद्भुत सार है
आने-जाने की महिमा
अपरम्पार है
जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!