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मुझ से कौन अबोध अधम है।
समता मिटी सत्व-रज-तम की, गौणिक विकृति विषम है,
सुखद विवेक-प्रकाश कहां है, नरक-रूप भ्रम-तम है।
मन में विषय-विकार भरे हैं, तन में अकड़ न कम है,
रहा न प्रेम-विलास वचन में, तनक न त्रिक संयम है।
विकट वितण्डावाद निगम है, कपट जटिल आगम है,
मंगल मूल मनोरथ अपना, अनुपकार अनुपम है।
अब कुछ धर्म-भाव उपजा है, यह अवसर उत्तम है,
पर करुणा-सागर ‘शंकर’ का, न्याय न निपट नरम है।