भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विनयावली / तुलसीदास / पद 201 से 210 तक / पृष्ठ 3" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
[[Category:लम्बी रचना]]
 
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
|पीछे=पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
+
|पीछे=विनयावली / तुलसीदास / पद 201 से 210 तक / पृष्ठ 2
|आगे=पद 201 से 210 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
+
|आगे=विनयावली / तुलसीदास / पद 201 से 210 तक / पृष्ठ 4
 
|सारणी=पद 201 से 210 तक / तुलसीदास
 
|सारणी=पद 201 से 210 तक / तुलसीदास
 
}}
 
}}

09:04, 17 जून 2012 के समय का अवतरण

पद संख्या 205 तथा 206

(205)
जेा न भज्यो चहै हरि-सुरतरू।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करू।
 
सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरू।
काम-क्रोध अरू लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरू।।
 
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरू।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरू।।

इहै भगति, बैराग्य यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरू।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरू।।

(206)

नाहिंन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरधुपति -सम बिपति -निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस , काहि प्रनत परप्रीति अकारन।1।

 जन-गुन अलप गनम सुमेरू करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
 परम कृपालु , भगत -चिंतामनि , बिरद पुनीत, पतितजन-तारन।2।

सुमिरत सुलभ, दास -दुख सुनि हरि चलत तुरत , पटपीत सँभार न ।
 साखि पुरान-निगम-आगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरू बारन।3।

जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह , मद -मार न।
 तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू- उधारन।4।