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"वधू / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

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शासन की झाड़ू उठ जाती है.
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न प्यार देते हैं न देते प्रकाश!
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कहो, समय हो गया, चल पानी भर लायें.'
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कब समाप्त होगा यह खेल,
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यदि कोई जनता हो तो मुझे बताये,
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शीतल जल कब इस ज्वाला को बुझायेगा !
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२३ मई १८८८

13:41, 5 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: रवीन्द्रनाथ ठाकुर  » वधू

'बेला हो गई है, चल पानी भर लायें.'
मानो कोई दूर पर पहचाने स्वर में
पुकार रहा है--
कहाँ है वह छाया सखी,
कहाँ है वह जल,
कहाँ है वह पक्का घाट,
कहाँ है वह अश्वत्थ-तल!
घर के इक कोने में
मैं अकेली और अनमनी बैठी थी,
मानो तभी किसी ने पुकारा:'चल पानी भर लायें'

वह टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता,
जहाँ कटि पर गगरी लेकर चलती थी--
बाईं ओर केवल मैदान है
सदा धू-धू करता हुआ,
दाहिनी ओर बाँस का जंगल डालियाँ हिलाता है.
तलब के काले पानी में
संध्या का आकाश झिलमिल कर्ता है,
दोनों तरफ
छाया से ढका कुआ घना वन है.
गहरे अचंचल जल में
धीरे से अपने को छोड़ देती हूँ
किनारे पर कोकिल अमृत भरी बोलि बोलता है.
लौटते समय पथ पर देखती हूँ,
तरु-शिखाओं पर अंधकार है
सहसा देखती हूँ
चन्द्रमा आकाश में आ गया है.

प्राचीर फोड़कर
अश्वत्थ ऊपर उठ रहा है,
वहीं तो दौड़ी जाती थी मैं रोज सबेरे उठकर.
शरद के ओस कनों से झिलमिलाती हुई सारी धरती;
फूलों से लड़ा हुआ कनेर;
प्राचीर के सहारे-सहारे उसे छाकर
बैंगनी फूलों से भरी हुई हरी-भरी दो लताएँ;
उनके बीच की छूटी हुई जगह में आँख गड़ाए
उसी की ओट में पड़ी रहती थी,
और आंचल पाँव पर गिर पड़ता था.

मैदान के बाद मैदान
मैदान के छोर पर दूर से हुए गाँव
आकाश में विलीन लगते हैं.
उस ओर खड़ी हुई है
पुराने श्यामल ताल वन की सघन राजि.
कभी झलक जाती है बाँध की जल-रेखा,
उसके किनारे आकर कोलाहल करते हैं चरवाहे.
असंख्य रस्ते फूटे हुए हैं
कौन जाने किस सैकड़ों नूतन देशों की दिशा में.

हाय री पाषाण काया राजधानी !
तूने व्याकुल बालिका को
जोर से अपनी विराट मुट्ठी में जकड़ लिया है
तुझे दया नहीं आती.
वे खुले हुए मैदान, उदार पथ
प्रशस्त घाट,पंछियों के गीत;
अरण्य की छाया कहाँ है.

मानो चारों तरफ लोग खड़े हैं,
कोई सुन न ले मन इसलिए नहीं खुलता.
यहाँ रोना व्यर्थ है,
वह भीत से टकराकर अपने ही पास लौट आएगा.

मेरे आंसुओं को कोई नहीं समझता.
सब हैरान होकर कारण ढूंढते हैं.
'इसे कुछ अच्छा नहीं लगता,
यह तो बड़ी बुरी बात है,
देहात की लड़की का ऐसा ही स्वभाव होता है.
कितने अड़ोसी-पड़ोसी सगे-सहोदर हैं
कितने लोग मिलने जुलने आते हैं
किन्तु यह बेचारी आँख फेरे हुए
कोने में ही बैठी रहती है.'
कोई मुख देखता है, कोई हाथ-पाँव
कोई अच्छा कहता है, कोई नहीं.
मैं फूलमाला, बिकने आई हूँ
सब परखना चाहते हैं
स्नेह कोई नहीं करता.
  
सबके बीच में अकेली घूमती हूँ.
किस तरह सारा समय काटूँ.
ईंट के ऊपर ईंट जमी है,
उनके बीच में है मनुष्य-कीट--
न प्यार है न खेल-कूद.

कहाँ हो तुम माँ कहाँ हो तुम,
मुझे तू कैसे भूल गई!
जब नया चाँद उगेगा
तब छत के ऊपर बैठकर
क्या तू मुझे कहानी नहीं सुनाएगी?
मुझे लगता है सुने बिछौने पर
मन के दुःख से रो-रोकर तू
रातें काटती है!
सबेरे शिवालय में फूल चढ़ाकर
अपनी परदेशी कन्या की कुशल माँगना.

चाँद यहाँ की छत के उस तरफ निकलता है माँ
कमरे के द्वार पर आकर प्रकाश
प्रवेश की आज्ञा माँगता है.
मानो मुझे खोजते हुए देश-देश में भटका है,
मानो वह मुझे प्यार करता है,चाहता है.
इसीलिए इक क्षण के लिये अपने को भूलकर
विकल होकर दौड़ती हूँ द्वार खोलकर .
और तभी चारों तरफ आँखे सतर्क हो जाती हैं,
शासन की झाड़ू उठ जाती है.
न प्यार देते हैं न देते प्रकाश!
जी कहता है, अँधेरे, छाया से ढके हुए
तालाब के उसी ठंढे पानी की
गोद में जाकर भर जाना अच्छा है.


लो मुझे पुकारो, तुम सब मुझे पुकारो--
कहो, समय हो गया, चल पानी भर लायें.'
समय कब होगा
कब समाप्त होगा यह खेल,
यदि कोई जनता हो तो मुझे बताये,
शीतल जल कब इस ज्वाला को बुझायेगा !

२३ मई १८८८