"मेघदूत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर
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कविवर ! | कविवर ! | ||
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आषाढ़ का कौन-सा प्रथम पवित्र दिन, | आषाढ़ का कौन-सा प्रथम पवित्र दिन, | ||
जब तुमने मेघदूत लिखा था ? | जब तुमने मेघदूत लिखा था ? | ||
− | विश्व में जितने भी विरही हैं, | + | विश्व में जितने भी विरही हैं, उन सबके शोक को |
तुम्हारे मेघमन्द्र श्लोक ने | तुम्हारे मेघमन्द्र श्लोक ने | ||
− | सघन संगीत में पुंजीभूत | + | सघन संगीत में पुंजीभूत करके अपनी अँधेरी तहों में छिपा रखा है . |
उस दिन उज्जयिनी के प्रासाद-शिखर पर, | उस दिन उज्जयिनी के प्रासाद-शिखर पर, | ||
− | + | न जाने, कितनी सघन घटा, कितना विद्युत--उत्सव, | |
वायु का कितना उद्दाम वेग, | वायु का कितना उद्दाम वेग, | ||
− | मेघों का कितना गुरू-गुरू नाद था | + | मेघों का कितना गुरू-गुरू नाद था । |
बादलों के संघर्ष के उसी निर्घोष ने | बादलों के संघर्ष के उसी निर्घोष ने | ||
एक दिन सहस्र वर्षों के अंतरगूढ़ | एक दिन सहस्र वर्षों के अंतरगूढ़ | ||
− | वाश्पकुल विरह-क्रन्दन को जगा दिया | + | वाश्पकुल विरह-क्रन्दन को जगा दिया । |
उसी दिन काल के बंधन को तोड़कर | उसी दिन काल के बंधन को तोड़कर | ||
− | मानो,बहुत दिनों का अवरुद्ध अश्रुजल | + | मानो, बहुत दिनों का अवरुद्ध अश्रुजल |
तुम्हारे उदार श्लोकों को सिक्त करके | तुम्हारे उदार श्लोकों को सिक्त करके | ||
− | अविरल रूप से झर पड़ा | + | अविरल रूप से झर पड़ा । |
संसार के जितने भी प्रवासी थे, | संसार के जितने भी प्रवासी थे, | ||
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एक ही स्वर में विरह का गाना गया था ? | एक ही स्वर में विरह का गाना गया था ? | ||
क्या उन्होंने अपनी अश्रुवाष्पयुक्त प्रेम वार्तालापों को | क्या उन्होंने अपनी अश्रुवाष्पयुक्त प्रेम वार्तालापों को | ||
− | नए,निर्बंध मेघों के पंखो पर बिठाकर | + | नए, निर्बंध मेघों के पंखो पर बिठाकर |
उन सुदूर वातायनों में भेजना चाह था | उन सुदूर वातायनों में भेजना चाह था | ||
जहाँ मुक्तकेशिनी, म्लानवेशिनी, | जहाँ मुक्तकेशिनी, म्लानवेशिनी, | ||
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उन सबके गान | उन सबके गान | ||
क्या तुमने देश-देशांतर में खोज कर | क्या तुमने देश-देशांतर में खोज कर | ||
− | विरहिणी प्रियाओं को भेज | + | विरहिणी प्रियाओं को भेज दिए, |
जैसे श्रावण की जाहन्वी बहती हुई | जैसे श्रावण की जाहन्वी बहती हुई | ||
− | महासमुद्र में लय होने के | + | महासमुद्र में लय होने के लिए |
दिग्दिगन्तर की वारिधाराओं को अपने में खींच लेती है, | दिग्दिगन्तर की वारिधाराओं को अपने में खींच लेती है, | ||
जैसे पाषाण-श्रृंखलाओं में बंधा हुआ हिमाचल | जैसे पाषाण-श्रृंखलाओं में बंधा हुआ हिमाचल | ||
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शिखरों से ऊपर उठकर | शिखरों से ऊपर उठकर | ||
अन्त में सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं | अन्त में सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं | ||
− | और सारे व्योम पर अधिकार जमा लेते हैं | + | और सारे व्योम पर अधिकार जमा लेते हैं । |
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12:23, 6 सितम्बर 2012 का अवतरण
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कविवर !
कब, कौन वह, विस्मृत-वर्ष था,
आषाढ़ का कौन-सा प्रथम पवित्र दिन,
जब तुमने मेघदूत लिखा था ?
विश्व में जितने भी विरही हैं, उन सबके शोक को
तुम्हारे मेघमन्द्र श्लोक ने
सघन संगीत में पुंजीभूत करके अपनी अँधेरी तहों में छिपा रखा है .
उस दिन उज्जयिनी के प्रासाद-शिखर पर,
न जाने, कितनी सघन घटा, कितना विद्युत--उत्सव,
वायु का कितना उद्दाम वेग,
मेघों का कितना गुरू-गुरू नाद था ।
बादलों के संघर्ष के उसी निर्घोष ने
एक दिन सहस्र वर्षों के अंतरगूढ़
वाश्पकुल विरह-क्रन्दन को जगा दिया ।
उसी दिन काल के बंधन को तोड़कर
मानो, बहुत दिनों का अवरुद्ध अश्रुजल
तुम्हारे उदार श्लोकों को सिक्त करके
अविरल रूप से झर पड़ा ।
संसार के जितने भी प्रवासी थे,
उस दिन क्या उन्होंने करबद्ध होकर,
प्रियतमा के गृह की ओर मुँह करके
एक ही स्वर में विरह का गाना गया था ?
क्या उन्होंने अपनी अश्रुवाष्पयुक्त प्रेम वार्तालापों को
नए, निर्बंध मेघों के पंखो पर बिठाकर
उन सुदूर वातायनों में भेजना चाह था
जहाँ मुक्तकेशिनी, म्लानवेशिनी,
सजलनयना विरहिनियाँ जमीन पर सोई हुई थीं ?
कवि ! अपने संगीत द्वारा
उन सबके गान
क्या तुमने देश-देशांतर में खोज कर
विरहिणी प्रियाओं को भेज दिए,
जैसे श्रावण की जाहन्वी बहती हुई
महासमुद्र में लय होने के लिए
दिग्दिगन्तर की वारिधाराओं को अपने में खींच लेती है,
जैसे पाषाण-श्रृंखलाओं में बंधा हुआ हिमाचल
आषाढ़ मास में, अनन्त आकाश में,
निर्मुक्त, व्योमचारी बादलों को देखकर निःश्वास छोड़ता है
और हजार कन्दराओं में राशि-राशि वाष्प समूह को
व्योम की ओर भेजता है;
जैसे वे वाष्प निरुद्देश्य दौड़ने वाली कामना के समान
शिखरों से ऊपर उठकर
अन्त में सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं
और सारे व्योम पर अधिकार जमा लेते हैं ।