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"मैं अखबार हूँ / वशिष्ठ कुमार झमन" के अवतरणों में अंतर

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दस रुपए में बिकता हूँ रोज़  
 
दस रुपए में बिकता हूँ रोज़  
और खो देता हूँ रोज़ ये भी मोल  
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और खो देता हूँ  
पढ़े लिखे शिक्षित लोगों के हाथों में रोता हूँ बार बार  
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रोज़ ये भी मोल  
शर्मनाक खबरों से बनी अपनी अस्मिता पर  
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पढ़े लिखे शिक्षित लोगों के हाथों में  
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रोता हूँ बार बार  
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कभी लिख दिया जाता है मुझपर  
 
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हज़ारों लोगों के पसीने को पीकर  
 
हज़ारों लोगों के पसीने को पीकर  
 
घूमता है कोई बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
 
घूमता है कोई बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
फिर भी कहता है मेरी प्यास नहीं बुझी मुझे तुम्हारा खून भी चाहिए एक कायर सी लौ जगती है लोगों में
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फिर भी कहता है  
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मेरी प्यास नहीं बुझी  
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मुझे तुम्हारा खून भी चाहिए  
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एक कायर सी लौ जगती है लोगों में
 
जो शीघ्र ही बुझ जाती है  
 
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अंधेरे के डर से
 
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मेरी बिकरी बढ़ जाती है जब बलात्कार को संसनी खेज़ बनाकर मेरा विज्ञापन किया जाता है और ढिंढोरा पीटता हूँ मैं किसी की तबाही का दस रुपए में और फिर...
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मेरी बिकरी बढ़ जाती है  
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जब बलात्कार को संसनी खेज़ बनाकर  
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मेरा विज्ञापन किया जाता है  
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और ढिंढोरा पीटता हूँ मैं  
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किसी की तबाही का दस रुपए में  
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और फिर...
 
वही कायर सी लौ
 
वही कायर सी लौ
  
बेइमानी, चोरी, भ्रष्टाचार बच्चों पर ज़ुल्म, स्त्रियों पर अत्याचार नेताओं के ढकोसले बयान करता हूँ रोज़  
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चिल्ला-चिल्लाकर  
 
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और फिर...
 
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इस जलने बुझने तक ही
 
इस जलने बुझने तक ही
सीमित रह गई है परिभाषा मेरी फिर भी तसल्ली दे देता हूँ खुदको कि आज का इनसान भी मेरी तरह जीता है पर न जाने क्यूँ न जाने क्यूँ
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सीमित रह गई है परिभाषा मेरी  
इनसानों सा जीना मुझे अब तक रास नहीं आता ।
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फिर भी तसल्ली दे देता हूँ खुद को
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कि आज का इनसान भी मेरी तरह  
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जीता है पर न जाने क्यूँ  
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न जाने क्यूँ
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इनसानों सा जीना  
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मुझे अब तक रास नहीं आता ।

10:37, 12 दिसम्बर 2012 के समय का अवतरण

दस रुपए में बिकता हूँ रोज़
और खो देता हूँ
रोज़ ये भी मोल
पढ़े लिखे शिक्षित लोगों के हाथों में
रोता हूँ बार बार
शर्मनाक खबरों से बनी
अपनी अस्मिता पर

कभी लिख दिया जाता है मुझपर
हज़ारों लोगों के पसीने को पीकर
घूमता है कोई बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
फिर भी कहता है
मेरी प्यास नहीं बुझी
मुझे तुम्हारा खून भी चाहिए
एक कायर सी लौ जगती है लोगों में
जो शीघ्र ही बुझ जाती है
अंधेरे के डर से

मेरी बिकरी बढ़ जाती है
जब बलात्कार को संसनी खेज़ बनाकर
मेरा विज्ञापन किया जाता है
और ढिंढोरा पीटता हूँ मैं
किसी की तबाही का दस रुपए में
और फिर...
वही कायर सी लौ

बेइमानी, चोरी, भ्रष्टाचार बच्चों पर ज़ुल्म,
स्त्रियों पर अत्याचार,
नेताओं के ढकोसले बयान
करता हूँ रोज़
चिल्ला-चिल्लाकर
और फिर...
वही कायर सी लौ

इस जलने बुझने तक ही
सीमित रह गई है परिभाषा मेरी
फिर भी तसल्ली दे देता हूँ खुद को
कि आज का इनसान भी मेरी तरह
जीता है पर न जाने क्यूँ
न जाने क्यूँ
इनसानों सा जीना
मुझे अब तक रास नहीं आता ।