भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Mayank Mishra (चर्चा | योगदान) छो |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
− | अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, | + | अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, |
− | तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा | + | तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ। |
− | ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, | + | ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, |
− | इसे तोड़ने का जतन कर रहा | + | इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ। |
− | अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी, | + | अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी, |
− | उजाले में अब ये हवन कर रहा | + | उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ। |
− | वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं, | + | वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं, |
− | जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ | + | जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ |
− | तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला, | + | तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला, |
− | तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा | + | तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ। |
− | मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब, | + | मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब, |
− | तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ । | + | तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ । |
− | समालोचको की दुआ है कि मैं फिर, | + | समालोचको की दुआ है कि मैं फिर, |
− | सही शाम से आचमन कर रहा | + | सही शाम से आचमन कर रहा हूँ। |
12:00, 1 अप्रैल 2013 का अवतरण
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी, उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं, जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला, तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब, तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर, सही शाम से आचमन कर रहा हूँ।