"काँवरिया / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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सावन महीना बम्भोले को हिये धारि
त्यागि गृह साधु-भेस धारै है कँवरिया!
फूलन-बसन सों रुच-रुच सजी निहारि
ग्राम-जुवती बढ़ि आई राह कोर पे,
काँवर की सोभा निहारि रही नैनन सों,
भइया रे,इहां तुम आये हो कौन छोर से ?
कइस जतन से सजाई ओहार डारि
मोर मन देखि के जुड़ात, रे कँवरिया!
काँवर में भरि जल लाये लाये कौन तीरथ को,
काहे ते ओहिका धरा ते ना छुआत हौ ?
दूर-पार देस,भार काँवर को.काँधे लै,
मारग अगम पाँ पयादे चले जात हौ!
और बात पीछे, पहले इहै बताय देहु
आये कहाँ ते कहाँ जात हो कँवरिया ?
जीवन- जलधार अथाह आदि-अंत नाय
काँवर में नीर हौं तहां से लै जात हौं
सीतल विमल ताही स्रोत को प्रवाह,
लै जाय के दिगंबर भूतनाथ को चढ़ात हौं!
धरती की रज छुये राजस न होइ जाय
सुद्ध सतभाव को चढ़ावत कँवरिया!
मन की उमंगा लिये गंग की तरंगा!
आपुन लघु पात्र जित समायो भरि लायो हूँ!
कामना न मोरी कछु, भावना चलाय रही
जाया धाम पूत नात सबै बिसारि आयो हूँ
राग-द्वेस,मोह-मान भूलि के विराग धारि
जीवन के पुन्य-राग लीन है कँवरिया
कुछू बिलमाय लेहु चौतरा पे बैठि,नेक
राम की रसोई को परसाद पाय लेहु रे,
नीम की बयार में जुड़ाय लेहु स्रमित देह
धूप बरसात की तपाय कष्ट देत रे!
उत्तर की ओर मुड़ि जात वृत्ति जीवन की
देह धरे तीरथ लखात है कँवरिया!
भाव-लीन मानस में भूख-प्यास,सीत-ताप,
व्यापत न,सींचति है भावना फुहार-सी!
माई री,ममता में मन को न बोर ई है
तप की विराग भरी बेला त्योहार सी,
एक व्रत है सो निभाइ के रहौंगो ताहि
सुविधा के हाथ ना बिकाइ हैं कँवरिया!
देह-भान भूलि भाव-लीन मन धारि व्रत
जात्रा में ऐते दिन परम सुख पायो रे!
कुछू नायँ चाहै बे रहत समाधिलीन,
प्रकटन कृतज्ञता को आपुनो उपायो रे
पुन्य-थल भक्ति -जल परम पुनीत भरे
सत्य ही कृतार्थ हुई जात है कँवरिया!
इतै दिन मन साधि रहौं साधु निहचय करि,
फिर तो गृहस्थ हूँ जगत को निभाइहौं,
व्रत को सत-भाव आसुतोस को प्रभाव
धारि मानस की वृत्तिन को निरमल बनाइहौं
माई, आनन्द-नीर मानस पखारन को
पाप-ताप-साप हू नसाये, रे कँवरिया!
बरस-बरस मास-मास ऐ ही वर्त धारि,
तौ पे सत-भाव ही सुभाव बनि जात रे
काँटे और कंकर जो संकर की साधना में
ऊँची-नीची राहन को प्रसाद बन जात रे!
मानुस को जनम,सुबुद्ध दई दाता ने
आपुनपो खोइ बढो जात रे कँवरिया!
बिसम दाह तिहुँपुर के धारि कंठ नील भयो
धीर-गंभीर चंद्रमौलि वे दिगंबरा!
उनही के चाहे जन्म-मृत्यु के विधान भये
विगत मान आत्मरूप धारे विशंभरा
तिनही के माथ जल डारन के काज हेतु
साधन बनायो तुहै धन्य रे कँवरिया!
काँवर उठाये चलि दीन्हों पयादे पांय,
राह चलत और साथ वारे मिलि जायेंगे,
और देस-दिसा सों अनेक व्रतवारे साथ
एक ही प्रवाह एक धारा बन जायेंगे,
ॐबम्भोले नाद गगन गुँजाय रहे,
एक रूप -प्राण ह्वै जात हैं कँवरिया!