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"बालू / कुमार अनुपम" के अवतरणों में अंतर

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12:43, 8 जून 2013 के समय का अवतरण

क.
 
जब तक पहाड़ हैं
जब तक है जमीन
जब तक नदियाँ हैं
बालू रहेगी
अपनी रहस्यमय चमक लिए
हवा के जोर पर नाचती गाती इफरात
 
लेकिन उसके गीत का चेहरा
चीख से इतना मिलता क्यों है?
यह दरकता हुआ-सा
क्या है उसकी भाषा में?
 
गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध और
हवा के साथ
दूर तक नहीं उड़ सकती बालू
(कि उसे हवा के साथ उड़ना पसंद नहीं
कुछ कहा नहीं जा सकता ठीक से)
 
ठोस गँवारपन के साथ
धस्स से बैठ जाना
उसकी फितरत है
 
दरअसल बालू
धारा से कटे लोगों का
दुख है।
 
ख.
 
मौसमों के षड्यंत्र
और निर्बाध गति के मद्देनजर
छोड़ती जा रही हैं नदियाँ
बहुत कुछ
जो जरा भी ठोस है
 
उन्हें जल्दी क्या
हड़बड़ी है और एक सनातन भ्रम
कि अथाह अगम्य समुद्र
उन्हीं के इंतजार में
रुका है युगों से
वरना चला जाता
किसी अन्य महासागर से मिलने
(इस समय
किसके पास है प्रतीक्षा भर का समय)
 
नदियाँ विभोर हैं कि अब
कहलाएँगी समुद्र
अनंत अथाह अगम्य
 
उन्मत्त हैं नदियाँ
वह गंगा कि यमुना
सरस्वती या अलकनंदा हों
 
अजब कि अनभिज्ञ नहीं हैं नदियाँ
इस प्राचीन षड्यंत्र से
कि खोने वाला है कि खो रहा है
उनका अस्तित्व उनकी पहचान
और बहुत कुछ
जो जरा भी ठोस है
 
धूप में
जो चमक रही है दूर तक
वह शत-प्रतिशत
नदियों का सिर्फ अवसाद नहीं है निरर्थक
छूटी हुई इन्हीं चीजों से
तामीर होता है संसार
 
फ.
 
गवाह है बालू कि इसी जगह
रहती थी एक नदी
जो फैली है दूर तक
नदी की स्मृतियों की तरह
 
चले आते हैं कभी
भूले-भटके बच्चे घरौंदे बनाते हैं
तो चमक उठती हैं बालू की निस्पंद आँखें
खँगालती हैं
बच्चों की ड्राइंग कापियाँ
कि मिल जाय
पूरब से निकलती हुई एक नदी
चली गई पश्चिम की ओर
जो रहती थी इसी जगह
 
ब.
 
दूर-दूर तक बालू है
पानी कहीं नहीं है
 
पानी का अहसास
पानी पानी है
 
भ.
 
चंद्रमा आसमान में है
उसकी रोशनी में चमक रहा है
बालू की दरकी हुई अस्थियों का चूरा।
 
म.
 
ता-हद्दे-नजर
सिर्फ बालू है
बालू में कहीं नहीं हरियाली।
 
य.
 
फिर भी
दुखी नहीं है बालू
जिसने मुहैया कराई
छत, दीवार और घर
 
घरवाले
भूल चुके हैं उसे भले ही
मजदूरों के चेहरों की तरह
 
र.
 
गोल-गोल घुमनी करती हवा
बिटिया की तरह
गुदगुदाती है माँ का अतीत
 
तो माँ
बालू की तरह
खो जाती है किसी मधुर नदी की स्मृति में
और अचानक
फफक पड़ता है आत्मा से कोई ‘सोता’।
फर्श पर
रगड़कर चलते हुए जूते
जूतों तले
पड़ जाती जरा-सी बालू
तो सिहर जाती आत्मा
काँप जाता है समूचा अस्तित्व
 
क.
 
नदियाँ छोड़ती जाती हैं बालू
धीरे-धीरे
इकट्ठा होती रहती है
अपने बंधु-बांधवों के साथ
धारा से कटती हुई बालू
 
सुनाते हैं बंधु-बांधव अपनी-अपनी व्यथा-कथा
सबकी कथा में एक अदृश्य सामंजस्य होता है
 
अस्तित्व की याद है यही सामंजस्य
जो बना देता है बालू को पत्थर
और एक दिन
बदल देता है
नदी का अंधा रास्ता