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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।    | सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।    | ||
09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । 
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ 
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । 
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ 
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । 
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ 
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । 
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ 
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । 
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ 
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । 
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ 
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । 
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ 
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । 
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ 
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । 
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ 
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । 
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ 
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । 
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ 
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । 
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ 
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । 
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ 
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । 
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ 
॥ दासता पर दोहे ॥ 
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । 
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ 
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । 
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ 
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । 
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ 
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । 
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ 
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । 
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ 
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । 
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ 
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । 
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ 
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । 
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ 
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । 
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ 
॥ भक्ति पर दोहे ॥ 
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । 
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ 
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । 
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ 
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । 
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ 
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । 
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ 
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । 
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ 
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । 
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ 
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । 
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । 
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ 
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । 
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ 
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । 
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ 
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । 
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ 
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । 
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ 
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । 
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । 
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ 
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । 
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ 
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । 
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ 
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । 
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ 
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । 
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ 
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ 
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । 
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ 
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । 
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ 
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । 
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ 
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । 
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ 
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । 
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ 
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । 
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ 
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । 
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ 
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । 
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ 
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । 
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ 
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । 
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ 
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । 
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ 
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । 
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ 
॥ चेतावनी  ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । 
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । 
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । 
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । 
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ 
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । 
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ 
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । 
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ 
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । 
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ 
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । 
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ 
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । 
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ 
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । 
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ 
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । 
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ 
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । 
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ 
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । 
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ 
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । 
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ 
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । 
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ 
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । 
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ 
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । 
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ 
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । 
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ 
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । 
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ 
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । 
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ 
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । 
औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ 
मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । 
ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ 
कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । 
ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ 
कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । 
कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ 
कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । 
सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥ 
हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । 
सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ 
आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । 
ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ 
ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । 
रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ 
पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । 
काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ 
आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । 
अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ 
आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । 
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । 
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ 
सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । 
ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ 
ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । 
वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ 
ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । 
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ 
ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । 
एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥ 
पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । 
ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥ 
मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । 
मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥ 
घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । 
आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ 
हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । 
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ 
पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । 
अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ 
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । 
दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ 
कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । 
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ 
यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । 
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ 
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । 
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ 
जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । 
जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ 
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