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"स्मृतियाँ आती हैं... / विमल कुमार" के अवतरणों में अंतर

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10:07, 16 जून 2013 के समय का अवतरण

 तुम तो नहीं मिलती हो अब
पर तुम्हारी स्मृतियाँ
मिलती हैं मुझसे हर रोज
कभी किसी पार्क में
पत्थर की बेंच पर बैठी चुपचाप
कभी घर की सीढ़ियों पर
कभी छत पर कुछ सोचते हुए
जब भी देखता हूँ सर उठा कर आसमान
वो मिल जाती हैं मेरी आँखों में
झाँकता हूँ किसी कुएँ के भीतर से
देखता हूँ कोई फूल
कभी कोई नदी कोई झरना
कोई गिरती हुई पत्ती पेड़ से
कोई उड़ती हुई चिड़िया
खिलती हुई कोई धूप
तो वह मिल जाती हैं

तुम्हारी स्मृतियाँ रोज मिल जाती हैं
मुझसे
जब पार करता हूँ कोई पुल
किसी रेल में बैठ कर कहीं जा रहा होता हूँ
रात में ठीक सोने से पहले दवा खाते हुए
और सुबह जागने पर भी
वह मिल जाती है मुझे
कुछ कहती हुई शाम के बारे में
कुछ बताती हुई रोशनी के बारे में
कुछ लिखती हुई अँधेरों के बारे में
मुझे कचोटती हुई भीतर ही भीतर
बुलाती हुई अंदर ही अंदर मुझे

अब तुम तो नहीं मिलती हो कभी
पर तुम्हारी खुशबू
मुझ से मिलने चली आती है
हवा में उड़ कर झोंके की तरह
तुम्हारी आवाज भी आती है
मुझसे मिलने लड़खड़ाती हुई
तुम्हारी परछाई भी
लहूलुहान हो कर
सिर्फ तुम नहीं आती हो
आती हैं तुम्हारे कदमों की आहटें
तुम्हारी प्रतिध्वनियाँ
तुम्हारी मुस्कराहटें
हँसी के उजले छोर

तुम्हारा दुख भी कभी मुझसे मिलने चला आता है
क्योंकि मेरा परिचय तुमसे
उसके जरिए ही हुआ था
तुम नहीं आती हो मुझसे मिलने
पर तुम्हारी स्मृति क्यों चली आती हैं
मुझसे मिलने
कई टुकड़ों
कई रूपों में
मेरी नींद में खलल मचाती हुई
मुझे लहरों की तरह मथती हुई
मुझे बेचैन करती हुई
मेरे भीतर
टीसती हुई
चुभती हुई
मेरी आत्मा के भीतर
एक गहरी पुकार सी
तुम्हारी स्मृतियाँ
क्यों घेर लेती हैं
मुझे कोहरे की तरह
चारों ओर से
लपेटे
कि मेरा साँस लेना भी अब मुश्किल हो चला है
तुम्हें नहीं मालूम
तुम्हारी स्मृतियाँ
मेरी किताबों
दीवारों और खिड़कियों के भीतर
यहाँ तक कि
जिस कलम से जो कुछ भी
लिखता हूँ
उसकी स्याही के भीतर
चली आती हैं
जिस पानी से नहाता हूँ
उस पानी के भीतर
भी चली आती हैं
और मेरे रक्‍‍त में भी
घुल-मिल गई हैं
जिन्हें हटाना
लगभग असभंव है
मेरे लिए
पर जिनके साथ जीना भी
उतना ही मुश्किल है
क्योंकि तुम मुझसे
मिलने नहीं आती हो
सिर्फ स्मृतियाँ ही
आती हैं मुझसे मिलने